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________________ Version 002: remember to check http://www.AtmaDharma.com for updates मोक्षपाहुड] [२९१ इय जाणिऊण जोई ववहारं चयइ सव्वहा सव्वं। झायइ परमप्पाणं जह भणियं जिणवरिंदेहिं।। ३२।। इति ज्ञात्वा योगी व्यवहारं त्यजति सर्वथा सर्वम्। ध्यायति परमात्मानं यथा भणितं जिनवरेन्द्रैः।। ३२।। अर्थ:--इसप्रकार पूर्वोक्त कथनको जानकर योगी ध्यानी मुनि है वह सर्व व्यवहारको सब प्रकार ही छोड़ देता है और परमात्माका ध्यान करता है--जैसे जिनवरेन्द्र तीर्थंकर सर्वज्ञदेव ने कहा है वैसे ही परमात्माका ध्यान करता है। भावार्थ:--सर्वथा सर्व व्यवहारको छोड़ना कहा, उसका आशय इसप्रकार है कि--- लोकव्यवहार तथा धर्मव्यवहार सब ही छोड़ने पर ध्यान होता है इसलिये जैसे जिनदेवने कहा है वैसे ही परमात्माका ध्यान करना। अन्यमती परमात्माका स्वरूप अनेक प्रकारसे अन्यथा कहते हैं उसके ध्यानका भी वे अन्यथा उपदेश करते हैं उसका निषेध किया है। जिनदेवने परमात्माका तथा ध्यानका भी स्वरूप कहा वह सत्यार्थ है, प्रमाणभूत है वैसे ही जो योगीश्वर करते हैं वे ही निर्वाण को प्राप्त करते हैं।। ३२।। आगे जिनदेवने जैसे ध्यान अध्ययन प्रवृत्ति कही है वैसे ही उपदेश करते हैं:--- पंचमहव्वयजुत्तो पंचसु समिदीसु तीसु गुत्तीसु। रयणत्तयसंजुत्तो झाणज्झयणं सया कुणह।।३३।। पंचमहाव्रतयुक्त: पंचसु समितिषु तिसृषु गुप्तिषु। रत्नत्रयसंयुक्तः ध्यानाध्ययनं सदा कुरु।। ३३ ।। अर्थ:--आचार्य कहते हैं कि जो पाँच महाव्रत युक्त हो गया तथा पाँच समिति व तीन गुप्तियोंसे युक्त हो गया और सम्यग्दर्शन-ज्ञान-चारित्ररूपी रत्नत्रयसे संयुक्तहो गया, ऐसे बनकर हे मुनिराजों! तुम ध्यान और अध्ययन-शास्त्रके अभ्यासको सदा करो। १ पाठान्तर :- जिणवरिदेणं। ईम जाणी योगी सर्वथा छोडे सकळ व्यवहारने, परमात्मने ध्यावे यथा उपदिष्ट जिनदेवो वडे। ३२। तुं पंचसमित त्रिगुप्त ने संयुक्त पंचमहाव्रते, रत्नत्रयी संयुतपणे कर नित्य ध्यानाध्ययनने।३३। Please inform us of any errors on rajesh@ AtmaDharma.com
SR No.008211
Book TitleAshtapahuda
Original Sutra AuthorKundkundacharya
AuthorMahendramuni
PublisherDigambar Jain Swadhyay Mandir Trust
Publication Year
Total Pages418
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Spiritual, Religion, & Sermon
File Size5 MB
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