SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 284
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ २६० ] Version 002: remember to check http://www.AtmaDharma.com for updates जिणवरचरणंबुरुहं णमंति जे परमभत्तिराएण । ते जम्मवेल्लिमूलं खणंति वरभावसत्थेण ।। १५३ ।। जिनवरचरणांबुरुहं नमंतिये परमभक्तिरागेण । ते जन्मवल्लीमूलं खनंति वरभावशस्त्रेण ।। १५३ ।। अर्थः--जो पुरुष परम भक्ति अनुराग से जिनवर के चरणकमलोंको नमस्कार करते हैं वे श्रेष्ठभावरूप ‘शस्त्र' से जन्म अर्थात् संसाररूपी बेलके मूल जो मिथ्यात्व आदि कर्म, उनको नष्ट कर डालते हैं ( खोद डालते हैं)। भावार्थ:-- अपनी श्रद्धा - रुचि - प्रतीति से जो जिनेश्वरदेवको नमस्कारकरता है, उनके सत्यार्थस्वरूप सर्वज्ञ - वीतरागपन को जानकर भक्तिके अनुरागसे नमस्कार करता है तब ज्ञात होता है कि सम्यग्दर्शनकी प्राप्तिका यह चिन्ह है, इसलिये मालूम होता है कि इसके मिथ्यात्वका नाश हो गया, अब आगामी संसारकी वृद्धि इसके नहीं होगी, इसप्रकार बताया है।। १५३ ।। आगे कहते हैं कि जो जिनसम्यक्त्व को प्राप्त परुष है सो वह आगामी कर्म से लिप्त नहीं होता है: [ अष्टपाहुड जह सलिलेण ण लिप्पइ कमलिणिपत्तं सहावपयडीए । तह भावेण ण लिप्पइ कसायविसएहिं सप्पुरिसो।। १५४।। यथा सलिलेन न लिप्यते कमलिनीपत्रं स्वभावप्रकृत्या । तथा भावेन न लिप्यते कषायविषयैः सत्पुरुषः ।। १५४ ।। अर्थः--जैसे कमलिनी का पत्र अपने स्वभावसे ही जलसे लिप्त नहीं होता है, वैसे ही सम्यग्दृष्टि सत्पुरुष है वह अपने भावसे ही क्रोधादिक कषाय और इन्द्रियोंके विषयोंमें लिप्त नहीं होता है। जे परमभक्तिरागथी जिनवरपदांबुजने नमे, ते जन्मवेलीमूळने वर भावशस्त्र वडे रखणे । १५३ । ज्यम कमलिनीना पत्रने नहि सलिललेप स्वभावथी, त्यम सत्पुरुषने लेप विषयकषायनो नहि भावथी । १५४ । Please inform us of any errors on rajesh@Atma Dharma.com
SR No.008211
Book TitleAshtapahuda
Original Sutra AuthorKundkundacharya
AuthorMahendramuni
PublisherDigambar Jain Swadhyay Mandir Trust
Publication Year
Total Pages418
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Spiritual, Religion, & Sermon
File Size5 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy