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________________ Version 002: remember to check http://www.AtmaDharma.com for updates भावपाहुड] [ २५९ सांख्यमती, नैयायिक सदा ही कर्मरहित मानते हैं वैसा नहीं है। ऐसे परमात्मा के सार्थक नाम हैं। अन्यमती अपने इष्ट का नाम एक ही कहते हैं, उनका सर्वथा एकान्तके अभिप्रायके द्वारा अर्थ बिगड़ता है इसलिये यथार्थ नहीं है। अरहन्तके ये नाम नयविवक्षा से सत्यार्थ हैं , ऐसा जानो।। १५१।। आगे आचार्य कहते हैं कि ऐसा देव मुझे उत्तम बोधि देवे:--- इय घाइकम्ममुक्को अट्ठारहदोसवज्जिओ सयलो। तिहुवणभवणपदीवी देउ ममं उत्तमं बोहिं।। १५२ ।। इति घातिकर्ममुक्त: अष्टादशदोषवर्जितः सकलः। त्रिभुवनभवनप्रदीपः ददातु मह्यं उत्तमां बोधिम्।। १५२ ।। अर्थ:--इसप्रकार घातिया कर्मोंसे रहित, क्षुधा तृषा आदि पूवोक्त अठारह दोषों से रहित, सकल (शरीरसहित) और तीन भुवनरूपी भवन को प्रकाशित करने के लिये प्रकृष्ट दीपकतुल्य देव है, वह मुझे उत्तम बोधि (–सम्यग्दर्शन-ज्ञान-चारित्र) की प्राप्ति देवे, इसप्रकार आचार्य ने प्रार्थना की है। भावार्थ:--यहाँ और त पूर्वोक्त प्रकार जानना, परन्तु 'सकल' विशेषणका यह आशय है कि --मोक्षमार्ग की प्रवृत्ति करने के जो उपदेश हैं वह वचनके प्रवर्ते बिना नहीं होते हैं और वचन की प्रवृत्ति शरीर बिना नहीं होती है, इसलिये अरहंतका आयुकर्मके उदय से शरीर सहित अवस्थान रहता है और सुस्वर आदि नामकर्मके उदय से वचन की प्रवृत्ति होती है। इस तरह अनेक जीवोंका कल्याण करने वाला उपदेश होता रहता है। अन्यमतियोंके ऐसा अवस्थान (ऐसी स्थित) परमात्मा के संभव नहीं है, इसलिये उपदेश की प्रवृत्ति नहीं बनती है, तब मोक्षमार्गका उपदेश भी नहीं बनता है। इसप्रकार जानना चाहिये।। १५२ ।। आगे कहते हैं कि जो अरहंत जिनेश्वर के चरणोंको नमस्कार करते हैं वे संसार की जन्मरूप बेलको काटते हैं:---- ---------------------------------------------------- चउघातिकर्मविमुक्त, दोष अढार रहित, सदेह ओ त्रिभुवनभवनना दीप जिनवर बोधि दो उत्तम मने। १५२ । Please inform us of any errors on rajesh@ AtmaDharma.com
SR No.008211
Book TitleAshtapahuda
Original Sutra AuthorKundkundacharya
AuthorMahendramuni
PublisherDigambar Jain Swadhyay Mandir Trust
Publication Year
Total Pages418
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Spiritual, Religion, & Sermon
File Size5 MB
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