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दर्शनपाहुड]
इसका देशभाषामय अर्थ :-आचार्य कहते हैं कि मैं जिनवर वृषभ ऐसे जो आदि तीर्थंकर श्री ऋषभदेव तथा अन्तिम तीर्थंकर वद्धर्मान, उन्हें नमस्कार करके दर्शन अर्थात् मत का जो मार्ग है उसे यथानुक्रम संक्षेप में कहूँगा।
भावार्थ :--यहाँ 'जिनवर वृषभ' विशेषण है; उसमें जो जिन शब्द है उसका अर्थ ऐसा है कि-जो कर्मशत्रुको जीते सो जिन। वहाँ सम्यग्दृष्टि अव्रतीसे लेकर कर्मकी गुणश्रेणीरूप निर्जरा करने वाले सभी जिन हैं उनमें वर अर्थात् श्रेष्ठ। इस प्रकार गणधरादि मुनियोंको जिनवर कहा जाता है; उनमें वृषभ अर्थात् प्रधान ऐसे भगवान तीर्थंकर परम देव हैं। उनमें प्रथम तो श्री ऋषभदेव हुए और इस पंचमकालके प्रारंभ तथा चतुर्थकालके अन्तमें अन्तिम तीर्थंकर श्री वर्धमानस्वामी हुए हैं। वे समस्त तीर्थंकर वृषभ हुए हैं उन्हें नमस्कार हुआ। वहाँ 'वर्धमान' ऐसा विशेषण सभीके लिये जानना; क्योंकि अन्तरंग बाह्य लक्ष्मीसे वर्धमान हैं। अथवा जिनवर वृषभ शब्दसे तो आदि तीर्शकर श्री ऋषभदेव को और वर्धमान शब्द से अन्तिम तीर्थंकर को जानना। इसप्रकार आदि और अन्तके तीर्थंकरोंको नमस्कार करने से मध्यके तीर्थंकरोंको सामर्थ्यसे नमस्कार जानना। तीर्थंकर सर्वज्ञ वीतरागको जो परमगुरु कहते हैं और उनकी परिपाटी में चले आ रहे गौतमादि मुनियोंको जिनवर विशेषण दिया, उन्हें अपर गुरु कहते हैं; --इसप्रकार परापर गुरुओंका प्रवाह जानना। वे शास्त्रकी उत्पत्ति तथा ज्ञानके कारण हैं। उन्हें ग्रन्थके आदि में नमस्कार किया ।।१।।
अब, धर्मका मूल दर्शन है, इसलिये जो दर्शन से रहित हो उसकी वंदना नहीं करनी चाहिये --ऐसा कहते हैं :
दंसणमूलो धम्मो उवइट्ठो जिणवरेहिं सिस्साणं। तं सोउण सकण्णे दंसणहीणो ण वंदिव्वो।।२।।
दर्शनमूलो धर्मः उपदिष्ट: जिनवरैः शिष्याणाम्। तं श्रुत्वा स्वकर्णे दर्शनहीनो न वन्दितव्यः।।२।। रे! धर्म दर्शनमूल उपदेश्यो जिनोए शिष्यने, ते धर्म निज कर्णे सुणी दर्शनरहित नहि वंद्य छ। २।
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