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[अष्टपाहुड अर्थ :--जिनवर जो सर्वज्ञ देव हैं उन्होंने शिष्य जो गणधर आदिकको धर्मका उपदेश दिया है; कैसा उपदेश दिया है ?---कि दर्शन जिसका मूल है। मूल कहाँ होता है कि-जैसे मंदिर के नींव और वृक्ष के जड़ होती है उसी प्रकार धर्मका मूल दर्शन है। इसलिये आचार्य उपदेश देते हैं कि-- हे सकर्ण अर्थात् सत्पुरुषों! सर्वज्ञ के कहे हुए उस दर्शनमूलरूप धर्म को अपने कानोंसे सुनकर जो दर्शनसे रहित हैं वे वंदन योग्य नहीं हैं इसलिये दर्शन हीन की वंदनामत करो। जिसके दर्शन नहीं है उसके धर्म भी नहीं है; क्योंकि मूल रहित वृक्षके स्कंध, शाखा, पुष्प, फलादिक कहाँ से होंगे? इसलिये यह उपदेश है कि- जिसके धर्म नहीं है उससे धर्मकी प्राप्ति नहीं हो सकती, फिर धर्मके निमित्त उसकी वंदना किसलिये करें ?-ऐसा जानना।
अब यहाँ धर्मका तथा दर्शन का स्वरूप जानना चाहिये। वह स्वरूप तो संक्षेपमें ग्रन्थकार ही आगे कहेंगे, तथापि कुछ अन्य ग्रन्थोंके अनुसार यहाँ भी दे रहें हैं :-'धर्म' शब्द का अर्थ यह है कि--जो आत्माको संसार से उबार कर सुख स्थान में स्थापित करे सो धर्म है। और दर्शन अर्थात् देखना। इसप्रकार धर्म की मूर्ति दिखायी दे वह दर्शन है तथा प्रसिद्धि में जिसमें धर्मका ग्रहण हो ऐसे मत को 'दर्शन' कहा है। लोक में धर्मकी तथा दर्शनकी मान्यता सामान्यरूप से तो सबके है, न्तु सर्वज्ञ के बिना यथार्थ स्वरूपका जानना नहीं हो सकता; परन्तु छद्मस्थ प्राणी अपनी बुद्धि से अनेक स्वरूपों की कल्पना करके अन्यथा स्वरूप स्थापित करके उनकी प्रवृत्ति करते हैं। और जिनमत सवर्स की परम्परा से प्रवर्तमान है इसलिये इसमें यथार्थ स्वरूपका प्ररूपण है।
वहाँ धर्मको निश्चय और व्यवहार--ऐसे दो प्रकार से साधा है। उसकी प्ररूपणा चार प्रकार से है--प्रथम वस्तुस्वभाव, दूसरे उत्तम क्षमादि दस प्रकार, तीसरे सम्यग्दर्शन-ज्ञानचारित्ररूप और चौथे जीवों की रक्षारूप ऐसे चार प्रकार हैं। वहाँ निश्चय से सिद्ध किया जाये तब तो सबमें एक ही प्रकार है, इसलिये वस्तुस्वभाव का तात्पर्य तो जीव नामक वस्तुकी परमार्थरूप दर्शन-ज्ञान-परिणाममयी चेतना है, और वह चेतना सर्व विकारोंसे रहित शुद्धस्वभावरूप परिणमित हो वही जीव का धर्म है। तथा उत्तमक्षमादि दस प्रकार कहने का तात्पर्य यह है कि आत्मा क्रोधादि कषायरूप न होकर अपने स्वभाव में स्थिर हो वही धर्म है, यह भी शुद्ध चेतना रूप हुआ।
दर्शन-ज्ञान-चारित्र कहने का तात्पर्य यह है कि तीनों एक ज्ञान चेतना के ही परिणाम हैं, वही ज्ञान स्वभाव रूप धर्म है। और जीवों की रक्षाका तात्पर्य यह है कि- जीव क्रोधादि कषायोंके वश होकर अपनी या पर की पर्याय के विनाशरूप मरण तथा दुःख, संक्लेश परिणाम न करे-ऐसा अपना स्वभाव ही धर्म है। इसप्रकार शुद्ध द्रव्यार्थिकरूप निश्चय से साधा हुआ धर्म एक ही प्रकार है।
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