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भावपाहुड]
[२३३
सीलसहस्सट्ठारस चउरासीगुणगणाण लक्खाइं। भावहि अणुदिणु णिहिलं असप्प लावेण किं बहुणा।। १२० ।।
शीलसहस्राष्टादश चतुरशीतिगुणगणानां लक्षाणि। भावय अनुदिनं निखिलं असत्प्रलापेन किं बहुना।।१२०।।
अर्थ:--शील अठारह हजार भेदरूप है और उत्तरगुण चौरासी लाख हैं। आचार्य कहते हैं कि हे मुने! बहुत झूठे प्रलापरूप निरर्थक वचनोंसे क्या ? इन शीलोंको और उत्तरगुणों को सबको तू निरन्तर भा, इनकी भावना - चिन्तन - अभ्यास निरन्तर रख, जैसे इनकी प्राप्ति हो वैसे ही कर।
भावार्थ:--'आत्मा- जीव' नामक वस्तु अनन्तधर्म स्वरूप है। संक्षेप से इसकी दो परिणति हैं, एक स्वाभाविक एक विभाव रूप। इनमें स्वाभाविक तो शुद्धदर्शनज्ञानमयी चेतनापरिणाम है और विभावपरिणाम कर्म के निमित्त से हैं। ये प्रधानरूप से तो मोहकर्म के निमित्त से हुए हैं। संक्षेप से मिथ्यात्व रागद्वेष हैं, इनके विस्तार से अनेक भेद हैं। अन्य कर्मों के उदय से विभाव होते हैं उनमें पौरुष प्रधान नहीं हैं, इसलिये उपदेश-अपेक्षा वे गौण हैं; इसप्रकार ये शील और उत्तरगुण स्वभाव-विभाव परिणति के भेद से भेदरूप करके कहे हैं।
शील की प्ररूपणा दो प्रकार की है----एक स्वद्रव्य-परद्रव्य के विभागकी अपेक्षा है और दूसरे स्त्री के संसर्ग की अपेक्षा है। परद्रव्य का संसर्ग मन, वचन, काय से और कृत, कारित, अनुमोदना से न करना। इनको आपसमें गुणा करने से नौ भेद होते हैं। आहार, भय, मैथुन और परिग्रह ये चार संज्ञा हैं, इनसे परद्रव्य का संसर्ग होता है उसका न होना, ऐसे नौ भेदोंका चार संज्ञाओं से गुणा करने पर छत्तीस होते हैं। पाँच इन्द्रियोंके निमित्त से विषयों का संसर्ग होता है, उनकी प्रवृत्ति के अभाव रूप पाँच इन्द्रियों से छत्तीस को गुणा करने पर एकसौ अस्सी होते हैं। पृथ्वी, अप, तेज, वायु, प्रत्येक, साधारण ये तो एकेन्द्रिय और दो इन्द्रिय, तीन इन्द्रिय, चौ इन्द्रिय, पंचेन्द्रिय ऐसे दश भेदरूप जीवोंका संसर्ग. इनकी हिंसारूप प्रवर्तन से परिणाम विभावरूप होते हैं सो न करना, ऐसे एकसौ अस्सी भेदोंको दस से गुणा करने पर अठारहसौ होते हैं।
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चोराशी लाख गुणो, अढार हर भेदो शीलना, -सघल्य प्रतिदिन भाव; बहु प्रलपन निरर्थथी शुं भला ? १२० ।
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