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[अष्टपाहुड कुछ तीव्र पापफल का दाता नहीं होता। इसलिये सम्यग्दृष्टि शुभकर्म ही के बाँधने वाला है-- -इसप्रकार शुभ-अशुभ कर्म के बंधका संक्षेप से विधान सर्वज्ञदेवने कहा है, वह जानना चाहिये।। ११८ ।।
आगे कहते हैं कि हे मुने! तू ऐसी भावना कर:----
णाणावरणादीहिं य अट्ठहिं कम्मेहिं बेढिओ य अहं। डहिऊण इण्डिं पयडमि अणंतणाणाइगुणचित्तां।। ११९ ।।
ज्ञानावरणादिभिः च अष्टभिः कर्मभिः वेष्टितश्च अहं। दग्ध्वा इदानीं प्रकटयामि अनन्तज्ञानादिगुण चेतनां।। ११९ ।।
अर्थ:--हे मुनिवर! तू ऐसी भावना कर कि मैं ज्ञानावरणादि आठ कर्मों से वेष्ठित हूँ, इसलिये इनको भस्म करके अनन्तज्ञानादि गण जिनस्वरूप चेतनाको प्रगट करूँ।
भावार्थ:--अपने को कर्मों से वेष्ठित माने और उनसे अनन्तज्ञानदि गुण आच्छादित माने तब उन कर्मोंके नाश करनेका विचार कर, इसलिये कर्मों के बंधकी और उनके अभावकी भावना करने का उपदेश है। कर्मों का अभाव शुद्धस्वरूप के ध्यान से होता है, उसी के करने का उपदेश है।
कर्म आठ हैं----१ ज्ञानावरण, २ दर्शनावरण, ३ मोहनीय, ४ अंतराय ये चार घातिया कर्म हैं, इनकी प्रकृति सैंतालीस हैं, केवलज्ञानावरण से अनन्तज्ञान आच्छादित है, केवलदर्शनावरण से अनन्तदर्शन आच्छादित है, मोहनीय से अनन्तसुख प्रगट नहीं होता है और अंतराय से अनन्तवीर्य प्रगट नहीं होता है, इसलिये इनका नाश करो। चार अघाति कर्म हैं इनसे अव्याबाध, अगुरुलघु, सूक्ष्मता और अवगाहना ये गुण (---की निर्मल पयार्य) प्रगट नहीं होते हैं, इन अघाति कर्मों की प्रकृति एकसौ एक हैं। घातिकर्मों का नाश होने पर अघातिकर्मों का स्वयमेव अभाव हो जाता है, इसप्रकार जानना चाहिये।। ११६ ।।
आगे इन कर्मों का नाश होने के लिये अनेक प्रकार का उपदेश है, उसको संक्षेप से कहते हैं:----
वेष्टित छु हुं ज्ञानावरणकर्मादि कर्माष्टक वडे; बाळी, हुं प्रगटावं अमितज्ञानादिगुणवेदन हवे। ११९ ।
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