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________________ भावपाहुड ] Version 002: remember to check http://www.AtmaDharma.com for updates पूयादिसु वयसहियं पुण्णं हि जिणेहिं सासणे भणियं । मोहक्खोहविहीणो परिणामो अप्पणो धम्मो ।। ८३ ।। पूजादिषु व्रतसहितं पुण्यं हि जिनैः शासने भणितम् । मोहक्षोभविहीनः परिणामः आत्मनः धर्मः ।। ८३ ।। — अर्थ:--जिनशासन में जिनेन्द्र देवने इसप्रकार कहा है कि --- पूजा आदिक में और व्रत सहित होना है वह तो 'पुण्य' ही है तथा मोह के क्षोभ से रहित जो आत्माका परिणाम वह 'धर्म' है। भावार्थ:--लौकिक जन तथा अन्यमती कई कहते हैं कि पूजा आदिक शुभ क्रियाओं में और व्रतक्रिया सहित है वह जिनधर्म है, परन्तु ऐसा नहीं है। जिनमत में जिनभगवान ने इसप्रकार कहा है कि पूजादिक में और व्रत सहित होना है वह तो ‘पुण्य' है, इसमें पूजा और आदि शब्द से भक्ति, वंदना, वैयावृत्य आदिक समझना, यह तो देव गुरु शास्त्र के लिये होता है ओर उपवास आदिक व्रत हैं वह शुभ क्रिया है, इनमें आत्मा का राग सहित शुभ परिणाम है उससे पुण्यकर्म होता है इसलिये इनको पुण्य कहते हैं। इसका फल स्वर्गादिक भोगों की प्राप्ति है। मोहके क्षोभसे रहित आत्माके परिणाम धर्म समझिये । मिथ्यात्व तो अतत्त्वार्थ श्रद्धान है, मान अरति शोक भय जुगुप्सा ये छह द्वेषप्रकृति हैं और माया, लोभ, हास्य, रति ये चार तथा पुरुष, सत्री, नपुंसक ये तीन विकार, ऐसी सात प्रकृति रागरूप हैं । इनके निमित्त से आत्मा का ज्ञान - दर्शनस्वभाव विकारसहित, क्षोभरूप चलाचल, व्याकुल होता है इसलिये इन विकारों से रहित हो तब शुद्धदर्शनज्ञानरूप निश्चय हो वह आत्मा का 'धर्म' । इस धर्म से आत्माके आगामी कर्म का आस्रव रुककर संवर होता है और पहिले बँधे हुए कर्मों की निर्जरा होती है। संपूर्ण निर्जरा हो जाय तब मोक्ष होता है तथा एकदेश मोह के क्षोभ की हानि होती है इसलिये शुभ परिणामोंको भी उपचार से धर्म कहते हैं और जो केवल शुभ परिणाम ही को धर्म मानकर संतुष्ट हैं उनकी धर्मकी प्राप्ति नहीं है, यह जिनमतका उपदेश है ।। ८३ ।। — _ [२०७ - आगे कहते हैं कि जो 'पुण्य' ही को 'धर्म' जानकर श्रद्धान करता है उसके केवल भोग का निमित्त है, कर्मक्षय का निमित्त नहीं है: पूजादिमां व्रतमां जिनोओ पुण्य भाख्यं शासने; छे धर्म भाख्यो मोहक्षोभविहीन निज परिणामने । ८३ । Please inform us of any errors on rajesh@Atma Dharma.com
SR No.008211
Book TitleAshtapahuda
Original Sutra AuthorKundkundacharya
AuthorMahendramuni
PublisherDigambar Jain Swadhyay Mandir Trust
Publication Year
Total Pages418
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Spiritual, Religion, & Sermon
File Size5 MB
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