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________________ Version 002: remember to check http://www.AtmaDharma.com for updates २०६ ] [ अष्टपाहुड भिक्षा–भोजन करना जिसमें कृत, कारित, अनुमोदना का दोष न लगे छयालिस दोष टले, -बत्तीस अंतराय टले ऐसी विधिके अनुसार आहार करे । इसप्रकार तो बाह्यलिंग है और पहिले कहा वैसे हो व ‘भावलिंग' है, इसप्रकार दो प्रकारका शुद्ध जिनलिंग कहा है, अन्य प्रकार श्वेताम्बरादिक कहते हैह वह जिनलिंग नहीं है ।। ८१ । । आगे जिनधर्म की महिमा कहते हैं: जह रयणाणं पवरं वज्जं जह तरुगणाण गोसीरं । तह धम्माणं पवरं जिणधम्मं भाविभवमहणं ।। ८२ ।। यथा रत्नानां प्रवरं वज्रं यथा तरुगणानां गोशीरम् । तथा धर्माणां प्रवरं जिनधर्मं भाविभवमथनम् ।। ८२ ।। - अर्थः- - जैसे रत्नों में प्रवर (श्रेष्ठ) उत्तम वज्र ( हीरा ) है और जैसे तरुगण ( बड़े वृक्ष ) में गोसीर ( बावन चन्दन ) है, वैसे ही धर्मोंमें उत्तम भाविभवमथन ( आगामी संसार का मथन करने वाला) जिनधर्म है, इससे मोक्ष होता है। भावार्थ:- -'धर्म' ऐसा सामान्य नाम तो लोक में प्रसिद्ध है और लोक अनेक प्रकार से क्रियाकांडादिकको धर्म जानकर सेवन करता है, परन्तु परीक्षा करने पर मोक्षकी प्राप्ति करानेवाला जिनधर्म ही है, अन्य सब संसार के कारण है। वे क्रियाकांडादिक संसार ही में रखते हैं, कदाचित् संसार के भोगोंकी प्राप्ति कराते हैं तो भी फिर भोगों में लीन होता है, तब एकेन्द्रियादि पर्याय पाता है तथा नरक को पाता है। ऐसे अन्य धर्म नाममात्र हैं, इसलिये उत्तम जिनधर्म ही जानना ।। ८२ ।। आगे शिष्य पूछता है कि जिनधर्म को उत्तम कहा, तो धर्मका क्या स्वरूप है? उसका स्वरूप कहते हैं कि 'धर्म' इसप्रकार है: रत्नो विषे ज्यम श्रेष्ठ हीरक, तरूगणे गोशीर्ष छे, जिनधर्म भाविभवमथन त्यम श्रेष्ठ छे धर्मो विषे । ८२ । Please inform us of any errors on rajesh@AtmaDharma.com
SR No.008211
Book TitleAshtapahuda
Original Sutra AuthorKundkundacharya
AuthorMahendramuni
PublisherDigambar Jain Swadhyay Mandir Trust
Publication Year
Total Pages418
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Spiritual, Religion, & Sermon
File Size5 MB
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