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सद्दहृदि य पत्तेदि य रोचेदि य तह पुणो वि फासेदि । पुणं भोयणिमित्तं ण हु सो कम्मक्खयणिमित्तं।। ८४।।
श्रद्धाति च प्रत्येति च रोचते च तथा पुनरपि स्पृशति । पुण्यं भोगनिमित्तं न हि तत् कर्मक्षयनिमित्तम् ।। ८४ ।।
अर्थ:--जो पुरुष पुण्य को धर्म जानकर धद्वान करते हैं, प्रतीत करते हैं, रूचि करते हैं और स्पर्श करते हैं उनके 'पुण्य' भोगका निमित्त है। इससे स्वर्गादिक भोग पाता है और वह पुण्य कर्म के क्षय का निमित्त नहीं होता है, यह पगट जानना चाहिये।
भावार्थ:-- शुभ क्रियारूप पुण्यको धर्म जानकर इसका श्रद्धान, ज्ञान, आचरण करता है उसके पुण्य कर्मका बंध होता है, उससे स्वर्गादिके भोगोंकी प्राप्ति होती है और उससे कर्मका क्षय रूप संवर, निर्जरा, मोक्ष नहीं होता है ।। ८४ ।।
जो आत्मा का स्वभावरूप धर्म है वह ही मोक्षका कारण है
आगे कहते हैं कि ऐसा नियम है:
[ अष्टपाहुड
अप्पा अप्पम्मि रओ रायादिसु सयलदोसपरिचत्तो । संसारतरणहेदू धम्मो त्ति जिणेहिं णिद्दिद्वं ।। ८५ ।।
आत्मा आत्मनिरतः रागदिषु सकलदोषपरित्यक्तः । संसारतरणहेतुः धर्म इति जिनैः निर्दिष्टम् ।। ८५ ।।
अर्थः-- यदि आत्मा रागादिक समस्त दोषोंसे रहित होकर आत्मा ही में रत हो जाय तो ऐसे धर्म को जिनेश्वरदेव ने संसारसमुद्र से तरने का कारण कहा है।
भावार्थ:--जो पहिले कहा था कि मोहके क्षोभसे रहित आत्माका परिणाम है सो धर्म है, सो ऐसा धर्म ही संसार से पार के मोक्षका कारण भगवानने कहा है, यह नियम है ।। ८५ ।।
परतीत, रुचि, श्रद्धान ने स्पर्शन करे छे पुण्यनुं ते भोग केरूं निमित्त छे, न निमित्त कर्मक्षय तणुं । ८४ ।
रागादि दोष समस्त छोडी आतमा निजरत रहे भवतरणकारण धर्म छे ते ओम जिनदेवो कहे । ८५ ।
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