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[अष्टपाहुड
अर्थ:--आचार्य कहते हैं कि--मैं आचार्योंको नमस्कार कर, छहकायके जीवों को सुखके करने वाले, जिनमार्गमें जिनदेवने जैसा कहा है वैसे, जिसमें समस्त लोक के हितका ही प्रयोजन है ऐसा ग्रन्थ संक्षेपसे कहूँगा, उसको हे भव्य जीवों! तुम सुनो। जिन आचार्यों की वंदना की वे आचार्य कैसे हैं ? बहुत शास्त्रोंके अर्थको जाननेवाले हैं, जिनका तपश्चरण सम्यक्त्व और संयमसे शद्ध है, कषायरूप मलसे रहित हैं इसलिये शद्ध हैं।
भावार्थ:--यहाँ आचार्यों की वंदना की, उनके विशेषणोंसे जाना जाता है किगणधरादिक से लेकर अपने गुरुपर्यंत सबकी वंदना है और ग्रन्थ करने की प्रतीज्ञा की उसके विशेषणों से जाना जाता है कि-- जो बोधपाहुड ग्रन्थ करेंगे वह लोगों को धर्ममार्ग में सावधान कर कुमार्ग छुड़ाकर अहिंसा धर्मका उपदेश करेगा।। ३।।
आगे इस ‘बोधपाहुड' में ग्यारह स्थल बांधे हैं उनके नाम कहते हैं:--
आयदणं चेदिहरं जिणपडिमा दंसणं च जिणबिंब । भणियं सुवीयरायं जिणमुद्रा णाणमादत्थं ।।३।।
अरहंतेण सुदिटुं जं देवं तित्थमिह य अरहंतं। पावज्जगुणविसुद्धा इय णायव्वा जहाकमसो।।४।। आयतनं चैत्यगृहं जिनप्रतिमा दर्शनं च जिनबिंबम्। भणितं सुवीतरागं जिनमुद्रा ज्ञानमात्मार्थ ।।३।।
अर्हता सुद्दष्टं यः देव: तीर्थमिह च अर्हन्। प्रव्रज्या गुणविशुद्धा इति ज्ञातव्याः यथाक्रमशः।। ४ ।।
१ 'आत्मस्थं संस्कृतमें पाठान्तर है।
जे आयतन ने चैत्यगृह, प्रतिमा तथा दर्शन अने वीतराग जिननु बिंब, जिनमुद्रा, स्वहेतुक ज्ञान जे। ३।
अर्हतदेशित देव, तेम ज तीर्थ. वळी अहंत ने गुणशुद्ध प्रवज्या यथामशः अहीं ज्ञातन छ। ४ ।
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