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________________ Version 002: remember to check http://www.AtmaDharma.com for updates ८२] [अष्टपाहुड आकाश का अवगाहना गुण है और जीव-पुद्गल आदि के निमित्तसे प्रदेश भेद कल्पना किये जाते हैं वे पर्याय हैं तथा हानि-वृद्धिका परिणमन वह स्वभावपर्याय है। कालद्रव्य का वर्तना तो गुण है और जीव और पुद्गल के निमित्त से समय आदि कल्पना सो पर्याय है इसको व्यवहारकाल भी कहते हैं तथा हानि-वृद्धिका परिणमन वह स्वभावपर्याय है इत्यादि। इनका स्वरूप जिन-आगमसे जानकर देखना, जानना, श्रद्धान करना, इससे चारित्र शुद्ध होता है। बिना ज्ञान, श्रद्धान के आचरण शुद्ध नहीं होता है, इसप्रकार जानना।। १८ ।। आगे कहते हैं कि ये सम्यग्दर्शन, ज्ञान, चारित्र तीन भाव मोह रहित जीवके होते हैं, इनका आचरण करता हुआ शीघ्र मोक्ष पाता है:--- एए तिण्णि वि भावा हवंति जीवस्स मोहरहियस्स। णियगुणमाराहंतो अचिरेण य कम्म परिहरइ।।१९।। ए ते त्रयोऽपि भावाः भवंति जीवस्य मोहरहितस्य। निजगुणमाराधयन् अचिरेण च कर्म परिहरति।। १९ ।। अर्थ:--ये पूर्वोक्त सम्यग्दर्शन-ज्ञान-चारित्र तीन भाव हैं, ये निश्चयसे मोह अर्थात् मिथ्यात्वरहित जीव के ही होते हैं, तब यह जीव अपना निज गुण जो शुद्धदर्शन -ज्ञानमयी चेतना की अराधना करता हुआ थोड़ ही काल में कर्मका नाश करता है। भावार्थ:--निजगुण के ध्यान से शीघ्र ही केवलज्ञान उत्पन्न करके मोक्ष पाता है।।१९।। रे! होय छे भावो त्रणे आ, मोहविरहित जीवने; निज आत्मगुण आराधतो ते कर्मने अचिरे तजे। १९ । Please inform us of any errors on rajesh@ AtmaDharma.com
SR No.008211
Book TitleAshtapahuda
Original Sutra AuthorKundkundacharya
AuthorMahendramuni
PublisherDigambar Jain Swadhyay Mandir Trust
Publication Year
Total Pages418
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Spiritual, Religion, & Sermon
File Size5 MB
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