________________
तपस्वी-जीवन आहार को अनेषणीय करने लगा । भगवान् ने संगमक की हरकत को जान लिया और वे तुरंत गाँव से बाहर चले गये ।
संगमक को आए करीब छ: महीने होने आये थे । भगवान् को ध्यानच्युत करने के लिये वह अगणित विघ्न कर चुका था पर उन्हें विचलित करने में वह सफल नहीं हो स का । अब वह अवधिज्ञान से भगवान् की मानसिक वृत्तियों की परीक्षा करने लगा । उसने देखा कि महावीर के मनोभाव पहले से भी अधिक दृढ़ हैं । उसने अपनी हार मानी और बोला-'भगवन् ! इन्द्र ने आपके संबन्ध में जो कहा था वह अक्षरशः सत्य है । भगवन्, आप सत्यप्रतिज्ञ हैं और मैं भग्नतिज्ञ । आप भिक्षा के लिये जाइये । अब मैं कुछ भी विघ्न नहीं डालूँगा ।
संगमक के ये वचन सुनकर भगवान् महावीर ने कहा-'संगमक' मैं किसी के कथन की अपेक्षा नहीं रखता । मैं तो अपनी ही इच्छा के अनुसार चलता हूँ ।'
भगवान् के धैर्य से हार मानकर संगमक वहाँ से चला गया । दूसरे दिन भगवान् उसी व्रजगाँव में भिक्षाचर्या करने के लिए गये । पूरे छ: महीनों के बाद आपने एक बुढ़या ग्वालिन के हाथ से क्षीरान्न का भोजन किया ।
व्रजगाँव से भगवान् ने श्रावस्ती की तरफ विहार किया । आलंभिया, सेयविया आदि प्रसिद्ध नगरों से होते हुए श्रावस्ती पहुँचे और नगर के उद्यान में ध्यानारूढ़ हुए ।
उन दिनों श्रावस्ती में स्कन्द का उत्सव चल रहा था । लोग उत्सव में इतने व्यस्त थे कि भगवान् की तरफ किसीने लक्ष्य ही नहीं दिया । सारा गाँव स्कन्द के मंदिर के पास एकत्र हो रहा था । भक्तजन देवमूर्ति को वस्त्रालंकारों से सजाकर रथ में बिठाने जा रहे थे कि मूर्ति स्वयं चलने लगी । भक्तों के आनन्द का पार न रहा । वे समझे कि देव स्वयं रथ में बैठने जा रहे हैं । हर्ष के नारे लगाते हुए सब लोग मूर्ति के पीछे पीछे चले । मूर्ति उद्यान में पहुँची और भगवान् के चरणों में गिर पड़ी । लोगों ने हर्षनाद किया और देवाधिदेव मान कर महावीर का बहुमान और महिमा की ।
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org