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________________ तपस्वी-जीवन ३७ भक्तिपूर्वक वह अन्न आपके हाथों में रख दिया । सानुलट्ठिय से भगवान् ने दृढभूमि की तरफ विहार किया और उसके बाहर पेढाल-उद्यानस्थित पोलास चैत्य में जाकर अट्ठम तप कर रातभर एक अचित्त पुद्गल पर निनिमेष दृष्टि से ध्यान किया । भगवान् के इस निश्चल और निनिमेष ध्यान को देख कर स्वर्ग में इन्द्र ने प्रशंसा करते हुए कहा'ध्यान और धैर्य में भगवान् वर्धमान का कोई सानी नहीं । मनुष्य तो क्या देव भी भगवान् को इस निश्चलता से डिगा नहीं सकता ।' इन्द्र की यह प्रशंसा संगमक नामक देव से सहन न हुई । वह उठ कर बोला-'आप जिस मनुष्य की यह प्रशंसा कर रहे हैं, वास्तव में वह इसके योग्य नहीं हो सकता | कैसा भी मनुष्य क्यों न हो उसमें इतनी क्षमता हो ही नहीं सकती कि वह एक देव के आगे टिक सके । आप देखिए । मैं अभी जाकर उसे ध्यानच्युत किए देता हूँ ।' यह प्रतिज्ञा कर संगमक ने पोलास चैत्य में जाकर भगवान् को ध्यान से विचलित करने के लिए रात को विविध प्रकार के कष्टदायक बीस उपसर्ग किये पर भगवान् का हृदय तिलमात्र भी क्षुब्ध नहीं हुआ । पोलास चैत्य से चल कर भगवान् ने वालुका, सुभोग, सुच्छेत्ता, मलय और हत्थिसीस आदि स्थानों में भ्रमण किया और इन सभी ग्रामों में संगमक ने तरह तरह के उपसर्ग किये। एक समय भगवान् तोसलिगाँव के उद्यान में ध्यानारूढ़ थे । संगमक साधुरूप धारण कर गाँव में गया और एक मकान में सेंध लगाने लगा । लोगों ने चोर समझ कर पकड़ा और मारने लगे तो वह बोला-'मुझे मत मारो । मैं तो अपने गुरु की आज्ञा का पालन करने वाला हूँ । उन्होंने मुझे इस काम के लिए भेजा है।' लोगों ने पूछा-'कहाँ है रे तेरा गुरु ?' । उसने कहा- 'वे उद्यान में ठहरे हुए हैं ।' लोग उसके साथ उद्यान में गये तो भगवान् को ध्यान में खड़े देखा । अज्ञानी नागरिकों ने चोर समझ कर भगवान् पर हमला किया और बाँध कर Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.008068
Book TitleShraman Bhagvana Mahavira
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKalyanvijay Gani
PublisherShardaben Chimanbhai Educational Research Centre
Publication Year2002
Total Pages465
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Biography, History, & Philosophy
File Size8 MB
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