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________________ श्रमण भगवान् महावीर के आगे अपना मनोभाव प्रकट किया । स्वजनवर्ग ने कहा-'भाई, घाव पर नमक न छिड़को । अभी माता-पिता के वियोग का दुःख तो भूले ही नहीं कि तुम भी छोड़ने की बात करने लगे । भाई, जल्दी न करो । अभी कुछ समय तक ठहरो ।' वर्धमान--'कब तक ?' स्वजन-'कम से कम दो वर्ष तक ।' वर्धमान-'अच्छा, पर आज से मेरे निमित्त कुछ भी आरंभ-समारंभ न करना । __स्वजनवर्ग ने वर्धमान की बात मंजूर की और वर्धमान गृहस्थ वेष में रहते हुए भी त्यागी जीवन बिताने लगे । अपने लिए बने हुए भोजन, पान या अन्य भोगसामग्री का बिलकुल उपयोग न करते हुए वे साधारण भोजनादि से अपना निर्वाह करने लगे । ब्रह्मचारियों के लिये वजित तेल-फुलेल, माल्य-विलेपन और अन्य शंगारसाधनों को उन्होंने पहले ही छोड़ दिया था । गृहस्थ होकर भी वे सादगी और संयम के आदर्श बने हुए शान्तिमय जीवन बिताते थे । अन्तिम वर्ष में वर्धमान ने अपना विशेष लक्ष्य दीन दुखियों के उद्धार में लगाया । प्रतिदिन प्रात:काल से ही आप सुवर्णदान करने लगते और पहरभर में एक करोड़ आठ लाख दीनारों का दान कर डालते । वर्षभर में अरबों सुवर्ण मुहरों का दान कर अन्त में अभिनिष्क्रमण करने का निश्चय किया । अभिनिष्क्रमण का संकल्प करते ही नौ लोकान्तिक देव वहाँ उपस्थित हुए और वर्धमान के निश्चय का अनुमोदन करते हुए बोले-'श्रीमान् तुम्हारी जय हो ! कल्याणकारिन्, तुम्हारी जय हो ! हे क्षत्रियश्रेष्ठ, तुम्हारा जयकल्याण हो । हे जगत् के स्वामी, अब आप जल्दी धर्मतीर्थ का प्रवर्तन कीजिये जिससे सर्वजीवों का सुख और कल्याण हो ।' सुवर्ण, रूप्य, धन, धान्य, स्त्री, परिवार, राज्य और राष्ट्र सब प्रतिबन्धों पर से वर्धमान ने मन खींच लिया और मार्गशीर्ष कृष्णा १०मी को दिन के Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.008068
Book TitleShraman Bhagvana Mahavira
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKalyanvijay Gani
PublisherShardaben Chimanbhai Educational Research Centre
Publication Year2002
Total Pages465
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Biography, History, & Philosophy
File Size8 MB
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