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गृहस्थ जीवन
१३ चौथे पहर 'चन्द्रप्रभा' पालकी में बैठ कर राजभवन से निकले । राजकुटुम्ब, राज्याधिकारी, चतुरंगिणी सेना के अतिरिक्त हजारों नागरिकों ने आपका अनुगमन किया ।
क्षत्रियकुण्डपुर के बाहर ईशान-दिशा विभाग में 'ज्ञातखण्ड' नामक उद्यान था । वर्धमान के दीक्षामहोत्सव का जुलूस इसी ज्ञातखण्ड में पहुँच कर एक अशोक वृक्ष के समीप रुका ।
वर्धमान पालकी से उतरे और अशोक वृक्ष के नीचे वस्त्राभूषणों को त्याग कर स्वयं पंञ्चमुष्टिक केशलोच किया । एक देवदूष्य वस्त्र बायें कंधे पर रख कर भावी जीवनचर्या की कठिन प्रतिज्ञा करने के लिए तैयार हुए।
उत्तराफाल्गुनी नक्षत्र के साथ चन्द्र का योग था । विजय नामक मुहूर्त वर्तमान था । ऐसे सुव्रत दिन के चौथे पहर को वैरागी वर्धमान ने सिद्धों को नमस्कार कर अपने भावी जीवन का दिग्दर्शन करानेवाली यह प्रतिज्ञा की
'मैं समभाव को स्वीकार करता हूँ और सर्व सावद्य-योग का त्याग करता हूँ । आज से जीवन पर्यन्त, मानसिक, वाचिक तथा कायिक सावद्ययोगमय आचरण न स्वयं करूँगा, न कराऊँगा और न करते हुए का अनुमोदन करूँगा । पहले के सावध आचरण से निवृत्त होता है, उससे घृणा करता हूँ और अपने पूर्वकालीन सावद्यजीवन का त्याग करता हूँ ।'
___ उक्त प्रतिज्ञापूर्वक सर्वविरति-चारित्र को स्वीकार करते ही भगवान् वर्धमान को 'मन:पर्याय' ज्ञान प्राप्त हुआ ।
केशलोच कर देवदूष्य वस्त्र कंधे पर रख कर 'सामायिक' की प्रतिज्ञा करते समय कुमार वर्धमान के पास एक ब्राह्मण आया और आशीर्वाद पूर्वक बोला-'जय हो, राजकुमार की जय हो । आपके सुवर्ण दान ने पृथिवीभर का दारिद्रय दूर कर दिया पर इस भाग्यहीन ब्राह्मण को उससे लाभ नहीं हुआ । मैं परदेश से इसी समय आया हूँ, इस गरीब ब्राह्मण पर भी कुछ दया हो जाय ।' ब्राह्मण की प्रार्थना पर भगवान् ने देवदूष्य के दो टुकड़े कर आधा उसे दे दिया ।
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