________________
गृहस्थ जीवन परीक्षा करने की इच्छा से एक देव विकराल सर्प के रूप में वहाँ प्रकट हआ । और क्रीड़ावृक्ष के मूल को लिपट कर फंकारने लगा । इस दृश्य से वर्धमान के सब मित्र भयभीत हुए पर वर्धमान जरा भी नहीं डरे । वे सर्प की ओर आगे बढ़े और साँप को अपने हाथ से पकड़ कर दूर फेंक दिया ।
फिर खेल शुरू हुआ । अब की वार दो दो लड़के 'तिदूसक' खेल खेलने लगे । दो दो के बीच खेल होता और हारने वाला अपनी पीठ पर विजेता को चढ़ा कर दौड़ता । सर्परूपधारी देव समझ गया कि उसकी विभीषिका का वर्धमान पर कुछ भी असर नहीं हुआ । अब वह किशोररूप धारण करके उनके साथ खेलने लगा । क्षण भर में कुमाररूपधारी देव अपने हरीफ वर्धमान से हार गया और शर्त के अनुसार वर्धमान कुमार को अपनी पीठ पर लेकर दौड़ने लगा । वह दौड़ता जाता था और अपना शरीर बढ़ाता जाता था । क्षण भर में वह सात ताड़ जितना ऊँचा पिशाच बन गया । वर्धमान ने इस माया को तुरन्त जान लिया और ज़ोर से उसकी पीठ पर एक घूसा जमा दिया । वर्धमान का वज्रसम मुष्टिप्रहार मायावी देव सह नहीं सका अत: वह सिकुड़ कर अपने स्वाभाविक रूप को प्राप्त हुआ ।
अब देव को विश्वास हो गया कि वर्धमान का साहस और सामर्थ्य सचमुच ही प्रशंसनीय है । वह प्रकट होकर बोला-"वर्धमान ! सचमुच ही तुम 'महावीर' हो । अवश्य ही तुम्हारा साहस और सामर्थ्य इन्द्र की प्रशंसा के योग्य है । कुमार ! मैं तुम्हारा परीक्षक बनकर आया था और प्रशंसक बनकर जाता हूँ।"
देव चला गया पर उसके मुख से निकला हुआ 'महावीर' शब्द वर्धमान के नाम का सदा के लिये विशेषण हो गया ।
कुमार वर्धमान बाल्यावस्था से ही कैसे गंभीर थे इस बात को समझने के लिये उनके लेखशाला प्रवेश का प्रसंग विशेष उल्लेखनीय है । ५. लेखशाला प्रवेश
कुमार वर्धमान बाल्यावस्था से ही कैसे गंभीर थे इस बात को समझने
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org