SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 64
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ गृहस्थ जीवन शोक सागर में डूब गया । गर्भस्थ बालक ने यह सब अपने ज्ञान से देखा और सोचा-मातापिता की संतान विषयक ममता बड़ी प्रबल है । अभी जिसका मुँह भी नहीं देखा उसके वियोग की कल्पना से ही वे इस प्रकार अधीर हो उठे हैं । यह सोच कर महावीर ने गर्भावस्था में ही प्रतिज्ञा की कि 'माता-पिता की जीवितावस्था में मैं प्रव्रज्या ग्रहण नहीं करूँगा ।' जब से भगवान् महावीर राजा सिद्धार्थ के कुल में अवतीर्ण हुए तभी से राजा की राजसत्ता बढ़ने लगी, उनके भाण्डागार धन-धान्य से भरपूर होने लगे और सब प्रकार से ज्ञातवंश की उन्नति होने लगी । इस अभ्युदय को देख कर सिद्धार्थ और त्रिशला ने निश्चय किया कि 'यह सब वृद्धि हमारे गर्भस्थ पुत्र के पुण्यप्रताप का फल है इसलिये जन्म होने पर हम इस पुत्र का नाम वर्धमान रखेंगे ।' ईसवी सन् पूर्व ५९९ चैत्र सुदी १३ की मध्यरात्रि में रानी त्रिशला की पुण्यकुक्षि से श्रमण भगवान् महावीर का क्षत्रियकुण्डपुर में जन्म हुआ। इस पवित्र आत्मा के प्रादुर्भाव से केवल क्षत्रियकुण्डपुर ही नहीं, क्षण भर के लिए समस्त संसार लोकोत्तर प्रकाश से प्रकाशित हो गया और राजा सिद्धार्थ ने ही नहीं संसार भर के प्राणिगण ने अनिर्वचनीय आनन्द का अनुभव किया । जन्म के समकाल ही स्वर्ग के इन्द्रासन कंपित हुए । इन्द्र, देवगण तथा देवकुमारियों ने क्षत्रियकुण्डपुर में आकर इस पवित्र विभूति के जन्मोत्सव का आनन्द लिया । राजा सिद्धार्थ ने नगर में दस दिन तक उत्सव मनाया । प्रजा के आनन्द और उत्साह की सीमा नहीं रही । सर्वत्र धूम मच गई । सारा नगर उत्सव और आनन्द का स्थान बन गया । बारहवें दिन नामकरण संस्कार संपन्न हुआ । राजा सिद्धार्थ ने इस प्रसंग पर अपने ज्ञातिजन, कुटुम्ब-परिवार और मित्र तथा स्नेहियों को आमन्त्रित किया और भोजन, ताम्बूल, वस्त्र, अलंकारों से सब का सत्कार कर उनके आगे अपना मनोरथ व्यक्त करते हुए राजा ने कहा—'भाइयो, जब से यह Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.008068
Book TitleShraman Bhagvana Mahavira
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKalyanvijay Gani
PublisherShardaben Chimanbhai Educational Research Centre
Publication Year2002
Total Pages465
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Biography, History, & Philosophy
File Size8 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy