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श्रमण भगवान् महावीर राजसभा में आये और आशीर्वाद आदि शिष्टाचार के उपरान्त योग्य आसनों पर बैठ गये ।
राजा सिद्धार्थ फल-पुष्पादि से अञ्जलि भर कर उठे और बोले"विद्वानो ! गत मध्यरात्रि में सुख की नींद सोती हुई रानी गज, वृषभादि चौदह स्वप्न देख कर जग गईं और उसने शेषरात्रि विना सोये व्यतीत की । देवानुप्रिय ! इस स्वप्नदर्शन का निश्चित फल क्या होना चाहिये सो शास्त्र के आधार से कहिये ।"
स्वप्नपाठकों ने स्वप्न संबन्धी संपूर्ण हकीकत सुन कर उस पर विचार किया । देर तक एक दूसरे के साथ विचार विनिमय करके उनका मुखिया बोला-"राजन् ! बहुत ही शुभ स्वप्नदर्शन है । हमारे स्वप्नशास्त्र में कुल ७२ प्रकार के स्वप्न बताये गये हैं जिनमें से गज, वृषभादि १४ महास्वप्न वे ही भाग्यवती स्त्रियाँ देखती हैं जिनके गर्भ में भावी चक्रवर्ती राजा अथवा धर्मचक्रवर्ती तीर्थंकर का अवतार होता है । रानी ने जो ये महास्वप्न देखे हैं इससे निश्चित ही सवा नौ महीने उपरान्त इनकी कोख से किसी महान् चक्रवर्ती अथवा तीर्थंकर का जन्म होगा ।"
यवनिका के भीतर बैठी हुई रानी त्रिशला ने यद्यपि फलादेश अच्छी तरह सुन लिया था फिर भी राजा ने उनके निकट जाकर स्वप्नपाठकों के मुख से सुना हुआ स्वप्न-फल फिर सुनाया। रानी अपने स्वप्नदर्शन का फल सुन कर परम संतुष्ट हुईं और बार बार स्वप्नों का ही स्मरण करती हुई अपने स्थान पर गईं। राजा ने भी स्वपन्पाठकों को विपुल दान-दक्षिणा देकर बिदा किया ।
लोक में तीर्थंकरों का अवतार मति, श्रुत तथा अवधि इन तीनों ज्ञानो के साथ ही होता है अर्थात् गर्भावस्था में ही वे विशिष्ट ज्ञानी होते हैं । गर्भावतार के सातवें महीने में महावीर ने, 'शारीरिक चलन स्पन्दनादि से माता को कष्ट न हो' इस विचार से अपने शरीर का चलनादि बिलकुल बन्द कर दिया । परन्तु माता ने अपने गर्भ की निश्चलता से अमंगल की कल्पना की और सोचा कि गर्भस्थ बालक मृत्यु को प्राप्त हो गया है । क्षणभर में सारा राजकुटुम्ब
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