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गृहस्थ जीवन का ही उदय होता है और इसलिए वे क्षत्रियकुलों में ही जन्म पाते हैं । इस दशा में भगवान् महावीर के जीव का देवानन्दा ब्राह्मणी के गर्भ में अवतरण एक आश्चर्यभूत घटना थी ।
सौधर्मेन्द्र को पृथिवी पर तीर्थंकर के अवतार से अत्यन्त आनन्द हुआ । उसने भावी तीर्थंकर की स्तुति की और हरिणैगमेषी नामक देव को बुलाकर कहा-देवानुप्रिय ! पृथिवी पर तीर्थंकर का अवतार हुआ यह बड़े आनन्द की बात हुई पर वह अवतार ब्राह्मणकुल में हुआ; यह एक अनहोनी बात है । प्रिय नैगमेषी ! कुछ भी हो तीर्थंकर का जन्म ब्राह्मणकुल में न हुआ, न होगा । इसलिए तुम जाओ और भावी तीर्थंकर श्रमण भगवान् महावीर को देवानन्दा की कोख से सिद्धार्थ क्षत्रिय की भार्या त्रिशला की कोख में और त्रिशला के पुत्रीरूप गर्भ को देवानन्दा की कोख में रख दो ।
इन्द्र की आज्ञा पाकर हरिणैगमेषी देव ने आश्विन बदी त्रयोदशी की मध्यरात्रि में मनुष्य लोक में आकर देवानन्दा तथा त्रिशला को निद्रावश करके उनके गर्मों का परिवर्तन कर दिया ।
स्वप्नदर्शन के अनन्तर त्रिशला तुरन्त जग पड़ी और राजा सिद्धार्थ के पास जाकर अपने स्वप्नदर्शन की बात कही । राजा ने अपने बुद्धिबल के अनुसार पुत्रप्राप्तिरूप फल बताया, पर वे खुद ही इन महा स्वप्नों का विशेष फल जानना चाहते थे अतः इनका आखिरी फलादेश निमित्तवेत्ताओं के मुख से सुनने का निर्णय किया ।
प्रात:काल होते ही सिद्धार्थ ने अपने सेवकों को बुलाया और आस्थानमण्डप को सजाने तथा अष्टाङ्ग निमित्तवेत्ताओं को बुलाने का आदेश
दिया ।
हमेशा की अपेक्षा उस रोज राजा कुछ जल्दी उठे थे । प्रात:काल नित्यकर्मों से निवृत्त होकर सामान्त-मन्त्रिमण्डल के साथ वे आस्थानमण्डप में आकर सिंहासन पर बैठे । सामन्त-मन्त्री आदि सभी यथास्थान बैठ गये । रानी त्रिशला भी सपरिकर आकर यवनिका के भीतर भद्रासन पर सुशोभित हुईं ।
राजा का आमन्त्रण पाकर अष्टाङ्गनिमित्तशास्त्र के पारंगत आठ विद्वान्
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