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________________ ४ २. च्यवन और जन्म देवाधिदेव भगवान् महावीर प्राणत नामक कल्प (स्वर्ग) से च्युत होकर ( ईस्वी सन् पूर्व ६०० आषाढ़ शुक्ला षष्ठी की मध्यरात्रि के समय ) ब्राह्मणकुण्डपुर में देवानन्दा की कुक्षि में अवतीर्ण हुए । क्षण भर के लिए जगत् अनिर्वचनीय प्रकाश से उद्योतित हुआ और पृथिवी हर्ष से उच्छसित हो गई । श्रमण भगवान् महावीर उस रात्रि को देवानन्दा ने हाथी बैल, सिंह लक्ष्मी, पुष्पमाला, चन्द्र, सूर्य, ध्वजा, कलश, पद्मसरोवर, क्षीरसमुद्र, देव विमान, रत्नराशि और निर्धूम अग्नि——ये १४ पदार्थ स्वप्न में देखे । जागृत होने पर देवानन्दा ने ऋषभदत्त से अपने स्वप्न - दर्शन का फल पूछा । अपनी बुद्धि तथा शास्त्र के अनुसार स्वप्न- न-दर्शन का फल विचार कर ऋषभदत्त बोले “देवानुप्रिये ! तुमने बड़े शुभ स्वप्न देखे हैं । इन स्वप्नों के फलानुसार हमें ज्ञानी और वेदवेदाङ्गपारंगत पुत्र की प्राप्ति होनी चाहिये और आज ही से हमारी सर्वतोमुखी उन्नति का प्रारंभ होना चाहिये ।" स्वप्नों का फल सुन कर देवानन्दा परम आनन्दित हुई । उसने भावी और उसकी विशिष्टताओं के संबन्ध में सुन कर आत्म- गौरव का अनुभव किया । पुत्र I सुख सन्तोष और शान्ति में क्षणों की तरह दिन बीत रहे थे स्वप्रदर्शन को ८२ दिवस हो चुके थे और ८३ वें दिन की ठीक मध्यरात्रि के समय देवानन्दा ने स्वप्न देखा कि 'मेरे स्वप्न त्रिशला क्षत्रियाणी ने चुरा लिये ।' जिस समय देवानन्दा ने त्रिशला द्वारा किया गया अपने स्वप्नों का हरण देखा उसी समय त्रिशला ने वे ही चौदह महास्वप्न देखे जो पहले देवानन्दा ने देखे थे । तीर्थंकरों के जीव अपने पूर्वभवों में, खास कर पूर्व के तीसरे भव में, ऐसी साधना करते हैं कि तीर्थंकर के भव में उनके प्रायः पुण्यप्रकृतियों Jain Education International For Private Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.008068
Book TitleShraman Bhagvana Mahavira
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKalyanvijay Gani
PublisherShardaben Chimanbhai Educational Research Centre
Publication Year2002
Total Pages465
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Biography, History, & Philosophy
File Size8 MB
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