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प्रथम परिच्छेद
गृहस्थ जीवन
१. तत्कालीन परिस्थिति
भारतवर्ष का जन-समाज धार्मिक आडम्बरों में बहुत फँस चुका था, परन्तु धर्म के मौलिक तत्त्व प्रतिदिन तिरोहित होते जा रहे थे । मूल वैदिक धर्म 'श्रौत धर्म' के नाम से प्रसिद्ध था, उपनिषदों का अध्यात्मवाद और कपिल ऋषि का तापत्रयनिवृत्ति का उपदेश शुकपाठ की तरह रटा जाता था पर व्यवहार में इन सिद्धान्तों का बहुत कम उपयोग होता था । आडम्बरपूर्ण यज्ञक्रियाओं की विधि में ही वैदिक धर्म की परिसमाप्ति मानी जा रही थी । ब्राह्मण, क्षत्रिय और वैश्य ही तत्कालीन वैदिक धर्म के अधिकारी थे और वे ही अपने लिए 'द्विज' शब्द का उपयोग कर सकते थे । शूद्र और अन्त्यज जातियाँ यद्यपि प्रतिदिन सभ्यता और धार्मिकता के निकट पहुँच रही थीं तथापि वैदिक धर्माचार्य उनके लिए दृढ़तापूर्वक धर्म के द्वार बन्द किए हुए थे ।
१. "अथ हास्य वेदमुपशृण्वतस्त्रपु-जतुभ्यां श्रोत्रप्रतिपूरणमुदाहरणे जिह्वाच्छेदो धारणे शरीरभेदः ॥" गौतमधर्मसूत्रम् १९५ ।।
अर्थ-वेद सुननेवाले शूद्र के कानों में सीसा और लाख भर दिये जायँ । वेद का उच्चारण करने पर उसकी जीभ काट दी जाय और याद कर लेने पर उसका शरीर काट डालना चाहिये ।
__ "न शुद्राय मतिं दद्यान्नोच्छिष्टं न हविष्कृतम् ।
न चास्योपदिशेद्धर्मं न चास्य व्रतमादिशेत् ॥१४॥" वासिष्ठधर्मसूत्रम् ।
अर्थ-शूद्र को बुद्धि न दे, उसे यज्ञ का प्रसाद न दे और उसे धर्म तथा व्रत का उपदेश भी न दे।
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