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श्रमण भगवान् महावीर इस वैदिक क्रियाकाण्ड के युग ने जैन धर्म पर बड़ा भारी असर किया । २३ वें तीर्थंकर श्री पार्श्वनाथ के निर्वाण को अभी पूरे दो सौ वर्ष भी नहीं हुए थे फिर भी उनके संघ और धर्म की स्थिति शोचनीय हो गई थी। तत्कालीन वैदिक धर्म की क्रियाओं और आचरणों के भिन्न-भिन्न प्रभावों से जैन संघ किसी अंश तक प्रभावित भी हो गया था, फिर भी श्री पार्श्वनाथ की उग्रविहारी साधुसंतति अभी अहिंसा का रक्षण करने के लिये कटिबद्ध थी और उसीके उपदेश के प्रभाव से जैन अपना मौलिक स्वरूप टिकाये हुए थे।
समय धर्मभावना का था, परन्तु इस भावना के पोषक धर्माधिकारी बहुत कम रह गये थे । परिणामस्वरूप भावुक भारतवर्षीय प्रजा की धार्मिक भावनायें श्रद्धा, धर्म और सदनुष्ठान के स्थान पर अन्धविश्वास, हिंसा और रूढियों का पोषण कर रही थीं ।
यद्यपि भारतवर्ष की धार्मिक प्रवृत्ति उस समय रूढि और आडम्बर का रूप धारण कर चुकी थी, तथापि इसकी तत्कालीन राष्ट्रीय स्थिति बहुत कुछ संतोषजनक थी । अंग, मगध, वत्स, दशार्ण, अवन्ती, सिन्धु आदि अनेक देश उस समय राजसत्ताक थे तथापि वहाँ की प्रजा अधिकार-संपन्न और सुखी थी।
काशी, कोसल, विदेह आदि अनेक राष्ट्र प्रजासत्ताक थे । यद्यपि इन देशों में भी कहने मात्र को राजा होते थे तथापि वहाँ की राज्यव्यवस्था प्रत्येक जाति के उन चुने हुए नायकों के सुपुर्द होती थी जो 'गणराज' के नाम से पुकारे जाते थे ।
देश के शासक प्रत्येक कार्यों में इन गणराजों की सम्मति लेते थे और युद्ध जैसे प्रसंगों में तो राजा लोग इन गणराजों की सलाह के बिना एक कदम भी आगे नहीं बढ़ते थे ।
विदेह देश की राजधानी 'वैशाली' तत्कालीन प्रसिद्ध और समृद्ध नगरों में से एक थी । मिथिला की चिरसंचित समृद्धि उस समय वैशाली को प्राप्त थी । उसके निवासी वृजिक और विदेह यदि देव थे तो वैशाली
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