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जिनकल्प और स्थविरकल्प श्वेताम्बराचार्यों ने किया है वैसा दिगम्बराचार्यों ने नहीं किया और एकान्त नग्नता एकान्त निष्प्रतिकर्मतादि कितने ही जिनकल्पिकों के उग्र आचारों को वे स्थविरकल्पिकों के लिये भी ऐकान्तिक मान बैठे । परिणामस्वरूप दोनों परम्पराओं के मिलने का रास्ता ही बंद हो गया और दोनों परम्परावालों में एक दूसरे को निह्रव और मिथ्यादृष्टि कहने तक की नौबत पहुँच गयी ।
श्वेताम्बर-सम्प्रदाय का खंडन करनेवाले यदि जान लेते कि उनके पूर्वाचार्य भी स्त्रीमुक्ति, केवलिमुक्ति और साधुओं के लिये अपवाद मार्ग से वस्त्रपात्र का स्वीकार करते थे तो हम समझते हैं कि वे श्वेताम्बरों के साथ इतना विरोध कभी नहीं करते ।।
भद्रबाहु के दक्षिण में जाने के बाद श्वेताम्बरमत की उत्पत्ति होने सम्बन्धी दिगम्बरीय मान्यता कितनी निर्मूल है, यह बात इस लेख से स्पष्ट हो गई है। सच तो यह है कि भद्रबाहु के दक्षिण में जाने संबन्धी घटना विक्रम की पाँचवीं सदी के अन्त में देवर्द्धिगणि क्षमाश्रमण के समय में घटी थी । उस समय में उत्तर भारतवर्ष में दुर्भिक्ष भी पड़ा था और उसके बाद सुभिक्ष होने पर वलभी में श्वेताम्बर संघ का एक बड़ा भारी सम्मेलन भी हुआ था । जिसमें माथुरी और वालभी वाचनाओं का एकीकरण और पुस्तकलेखन-संबन्धी चिरस्मरणीय कार्य सम्पन्न हुए थे। इसी अर्वाचीन घटना को श्रुतकेवली भद्रबाहु के साथ जोड़कर दिगम्बर लेखकों ने अपने सम्प्रदाय को प्राचीन ठहराने की चेष्टा की है; परन्तु यदि वे यह जान लेते कि दिगम्बरों के ही लेखों से यह घटना द्वितीय भद्रबाहु संबन्धी सिद्ध होती है तो हम समझते हैं कि श्वेताम्बरों की अर्वाचीनता सिद्ध करने के लिये वे कभी चेष्टा नहीं करते ।
वर्तमान जैन आगमों को कल्पित और अर्वाचीन कहनेवाले दिगम्बर जैन विद्वान यदि यह जान लेते कि उनके धार्मिक ग्रन्थ भी, जिन्हें वे प्रामाणिक और आप्तप्रणीत समझते हैं, उन्हीं आगमों के आधार पर बने हैं जिन्हें वे नृतन और श्वेताम्बराचार्य प्रणीत कहते हैं, तो शायद जैन आगमों का वे इतना निरादर कभी नहीं करते । इसी प्रकार श्वेताम्बर लेखक भी यदि यह
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