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________________ जिनकल्प और स्थविरकल्प ३५३ कथन से भी यही सिद्ध होता है कि अंग ज्ञान की प्रवृत्ति जो वीर सं० ६८३ (विक्रम सं० २१३) तक चली थी उसके बाद अनेक आचार्यों के पीछे कुन्दकुन्द हुए थे । __ हमारे इस विवेचन से विचारकगण समझ सकेंगे कि कुन्दकुन्दाचार्य विक्रम की छठी सदी के प्रथम चरण में स्वर्गवासी हुए थे और उनके बाद विक्रम की सातवीं सदी के मध्य भाग में दिगम्बर ग्रन्थ पुस्तकों पर लिख कर व्यवस्थित किये गये थे । _इन सब बातों के विचार के उपरान्त यह कहने में हमें कुछ भी संकोच नहीं होता कि दिगम्बर सम्प्रदाय के जो-जो आचार-विचार विषयक मौलिक' ग्रन्थ हैं वे श्वेताम्बर आगमों के आधार पर बने हैं और दिगम्बरों के १. दिगम्बर-संप्रदाय की श्रुतावतार कथाओं में कर्मप्रकृतिप्राभृत और कषायप्राभृत ग्रन्थों के निर्माण का जो वृत्तान्त दिया है। उससे भी हमें तो यही प्रतीत होता है कि इन ग्रन्थों के क्रमशः ज्ञाता धरसेन और गुणधरमुनि प्राचीन स्थविर (श्वेताम्बर) परम्परा के स्थविर होना चाहिये, क्योंकि धरसेन का निवास गिरनार के पास बताया है जहाँ कि उस समय श्वेताम्बर परम्परा के आचार्य ही विचरते थे । गुणधरमुनि के नागहस्ती और आर्यमंक्षु के कषायप्राभृत सीखने सम्बन्धी वृत्तान्त भी विचारणीय हैं, क्योंकि श्वेताम्बर-परम्परा में ही नागहस्ती और आर्यमंगु नामक दोनों आचार्यों का पता मिलता है, दिगम्बर परम्परा में नहीं । और खास ध्यान देने योग्य बात तो यह है कि दिगम्बर-संप्रदाय जिन धरसेन और गुणधर मुनि से अपने आगमों की उत्पत्ति हुई बताता है, उनके विषय में वह कुछ भी जानकारी नहीं रखता । श्रुतावतार में इन्द्रनन्दी कहते हैं-'धरसेन और गुणधर गुरु के वंश का पूर्वापर कम हम नहीं जानते, क्योंकि उनका क्रम कहनेवाला कोई आगम या मुनि नहीं है ।' क्या आश्चर्य है कि ये दोनों श्रुतधर श्वेताम्बर परम्परा के हों और इसी कारण से दिगम्बर-परम्परा को इनके विषय में अधिक जानकारी न मिली हो । एक बात और है । दिगम्बरों की मान्यतानुसार उनके धार्मिक ग्रंथों का आधार धरसेनाचार्य का 'कर्मप्रभृतिप्राभृत' और गुणधरमुनि का 'कषायप्राभृत' है । इन्हीं दो ग्रन्थों की टीका चूर्णियों से उनका धार्मिक साहित्य पनपा है । परन्तु देखना यह है कि 'कर्मप्रकृतिप्राभृत' एक छोटा सा कर्मविषयक निबंध था । जिसे पुष्पदन्त और भूतबलि ने कुछ दिनों में ही धरसेन से पढ़ लिया था और कषायप्राभृत भी एक सौ तिरासी गाथात्मक मूल और तिरेपन गाथा प्रमाण उस पर विवरण था, तो इन दो छोटे से प्राचीन निबन्धों से दिगम्बरों का धार्मिक साहित्य इतना विस्तृत कैसे हुआ ? और सिर्फ 'कर्म' और 'कषाय' श्रमण - २३ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.008068
Book TitleShraman Bhagvana Mahavira
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKalyanvijay Gani
PublisherShardaben Chimanbhai Educational Research Centre
Publication Year2002
Total Pages465
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Biography, History, & Philosophy
File Size8 MB
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