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जिनकल्प और स्थविरकल्प
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अर्थात् "गुरु और साधर्मिक सम्बन्धी पुस्तक अथवा अन्य कोई पदार्थ ग्रहण करना चाहे तो उनको विनयपूर्वक निमन्त्रण करना चाहिये ।" देखिये, कैसी अर्थसंगति बिगड़ गई है ? 'निमंत्रणा' कुछ भी पदार्थ देने के लिये पहले की जानेवाली प्रार्थना का नाम है न कि 'याचना' का । टीकाकार ने निमन्त्रणा का अर्थ 'याचना' करके अर्थ संगति करने की चेष्टा की है पर निमन्त्रणा शब्द का ऐसा अर्थ करना कुछ भी प्रामाणिकता नहीं रखता ।
आहार- पानी आदि श्रमणोपयोगी पदार्थ लाकर 'इसमें से इच्छा हो सो लीजिये, इस प्रकार अन्य साधु की प्रार्थना करना उसको छंदना कहते हैं और आहार- पानी आदि लेने जाते समय 'आपके लिये मैं लाऊँगा' इस प्रकार अन्य साधु को न्योता देना उसका नाम है 'निमन्त्रणा' । परन्तु दिगम्बराचार्य इन परिभाषाओं का भाव नहीं समझ सके और कल्पनाबल से जो कुछ अर्थ सूझा वही लिख दिया ।
श्वेताम्बर आगमों में ओघसामाचारी, दशविधसामाचारी और पदविभागसामाचारी, ऐसे सामाचारी के तीन भेद कहे हैं । ओघनियुक्ति में जिस सामाचारी का निरूपण है वह ओघसामाचारी, इच्छामिच्छा आदि दशविधसामाचारी ( इसको 'चक्रवाल सामाचारी भी कहते हैं) और कल्पव्यवहारादि छेद सूत्रोक्त आचार को पदविभागसामाचारी कहते हैं ।
यद्यपि वट्टकेर के पास आवश्यकनियुक्ति विद्यमान थी और उसमें 'त्रिविध सामाचारी' का उल्लेख भी था, तथापि वहाँ दसविधसामाचारी के अतिरिक्त अन्य सामाचारियों का कुछ भी वर्णन नहीं था । इस कारण दशविध सामाचारी के नाम निर्देश के बाद आये हुए नियुक्तिकार के "एएसिं तु पयाणं पत्तेयरूवणं वोच्छं" ( इन प्रत्येक पदों का निरूपण करूँगा) इस 'प्रत्येक पद' शब्द प्रयोग से उन्होंने इन्हीं दस पदों के विवरण को 'पदविभाग सामाचारी' मानलिया; परन्तु फिर भी सामाचारी के तीन भेद पूरे नहीं हुए तब त्रिविध सामाचारी के स्थान पर दो ही प्रकार का सामाचार मानकर रह गये ।
इस प्रकार प्रकरणों की अपूर्णता, परिभाषाओं की अनभिज्ञता और अर्थ की असंगतियों का विचार करने से यह बात लगभग निश्चित हो जाती
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