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श्रमण भगवान् महावीर प्रतिपादन करने से पारिठावणियाविधिकार श्वेताम्बरस्थविर की प्राचीनता का भी पता चल जाता है कि वे विक्रम की दूसरी सदी के पहले के आचार्य थे ।
__भगवती-आराधनाकार की अर्वाचीनता उन्हीं के कथन से सिद्ध है । प्रस्तुत ग्रन्थ में उन्होंने अनेक स्थलों में 'गच्छ' शब्द का प्रयोग किया है जो कि विक्रम की पाँचवीं सदी के बाद का 'गण' का स्थानापन्न शब्द है । इसी भगवती-आराधना में साधु या आर्या का मृत शरीर उठाने के लिये पालकी (रथी) बनाने का विधान किया है जो कि वसतिवास होने के बहुत पीछे की रूढि है । इसके अतिरिक्त अन्य कई शब्द और परिभाषाएँ इसमें मिलती हैं जो सब श्वेताम्बरों की हैं । दिगम्बरीय साहित्य में उनका कहीं भी उल्लेख नहीं मिलता ।
दिगम्बर सम्प्रदाय के विद्यमान प्राचीन ग्रन्थों में वट्टकेराचार्यकृत 'मूलाचार' भी एक है । यद्यपि इस ग्रन्थ का रचनाकाल निश्चित नहीं है तथापि संग्रह ग्रन्थ होने के कारण इसका समय निर्णीत करना कठिन नहीं है। इस मूलाचार के पंचाचाराधिकार में कुल २२२ गाथाएँ हैं जिनमें ६० गाथाएँ अक्षरशः भगवती-आराधना की हैं । कुछ श्वेताम्बर आगमों की और कुछ ग्रन्थकार की स्वनिर्मित हैं ।
'समाचाराधिकार' में कुछ गाथाएँ भगवती-आराधना की, कुछ श्वेताम्बरीय आवश्यकनियुक्ति की और कुछ स्वनिर्मित हैं ।
'पिण्डविशुद्ध्यधिकार' में मौलिक गाथाएँ श्वेताम्बरीय पिण्डनियुक्ति की ही हैं । हाँ, कहीं-कहीं उनकी व्याख्या अपने सम्प्रदायानुसार अवश्य बदल दी गई है।
'पर्याप्त्यधिकार' में कहीं-कहीं आवश्यकनियुक्ति की गाथाएँ दृष्टिगोचर होती हैं । दोनों 'प्रत्याख्यानसंस्तारस्तवाधिकारों' में श्वेताम्बरीय ‘पइन्नों' की अनेक गाथाएँ ज्यों की त्यों संग्रह की गई हैं ।
__ 'समयसाराधिकार' में आवश्यकनियुक्ति और दशवैकालिकसूत्र की गाथाएँ उपलब्ध होती हैं ।
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