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________________ ३४५ जिनकल्प और स्थविरकल्प "कुसमुट्ठीएगाए, अव्वोच्छिण्णाइ तत्थ धाराए । संथारं संथरेज्जा, सव्वत्थ समो उ कायव्वो ॥४८॥ जत्थ य नत्थि तणाई, चुण्णेहिं तत्थ केसरहिं वा । कायव्वोऽत्थ ककारो, हेट तकारं च बंधेज्जा ॥५१॥" (आवश्यक सूत्र पृ० ६३५) ये ही गाथाएँ कुछ फेरफार के साथ भगवती-आराधना में नीचे मुजब उपलब्ध होती हैं "तेण कुसमुट्ठिधाराए, अव्वोच्छिण्णाए, समणिवादाए । संथारो कादव्वो, सव्वत्थ समो सगि तत्थ ॥१९८०॥ (भ० आ० ६३५) असदि तणे चुण्णेहि व, केसरिच्छारिट्ठिकादिचुण्णेहिं । कादव्वो थ ककारो, उवरे हिट्ठा तकारो से ॥१९८८॥ (भगवती-आराधना ६३७) इनमें पारिठावणिया-विधिकार 'ककार' करना और उसके नीचे 'तकार' बाँधना कहते हैं, जिसका तात्पर्य यह है कि वहाँ पर वासचूर्ण अथवा केसर से 'पुतला' करना चाहिये । मौर्यकाल में 'क' और 'त' का संयोग '' इस प्रकार पुत्तलक के रूप में होता था । पुतला बनाना ऐसी स्पष्टोक्ति न कर इस प्रकार अन्योक्ति में पुत्तलक-विधान किया । इसका कारण यह है कि पुत्तलक बनाना शिल्पी या होशियार मनुष्य का काम है। हर एक साधु इस काम में होशियार नहीं होता । परन्तु संयुक्त ' लिखना सभी जानते थे इसलिये 'क' के नीचे 'त' बाँधने के कथन द्वारा 'पुत्तलक' निर्माण का भाव बताने में ग्रन्थकार ने बड़ी बुद्धिमानी की है । इस उक्ति का भाव भगवती-आराधनाकार की समझ में नहीं आया क्योंकि वे विक्रम की पाँचवीं छठी सदी के ग्रन्थकार थे और 'क' और 'त' का संयोग विक्रम की दूसरी सदी के पहले ही अपना 'पुत्तलक' आकार बदल चुका था । अतएव उन्होंने प्रकरण और शब्दों को बदलकर अर्थ में अस्पष्टता उत्पन्न कर दी है। उक्त गाथा में 'तकार-ककार' के संयोग से पुत्तलक का विधान Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.008068
Book TitleShraman Bhagvana Mahavira
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKalyanvijay Gani
PublisherShardaben Chimanbhai Educational Research Centre
Publication Year2002
Total Pages465
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Biography, History, & Philosophy
File Size8 MB
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