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________________ ३४४ श्रमण भगवान् महावीर कोई परम्परागत आम्नाय नहीं है ? हम देख आये हैं कि शिवभूति के समय में ही कितने ही गुरुआम्नायों से यह शाखा वंचित हो चुकी थी और शेष जो आचार-विचार और आम्नाय प्रचलित थे उनमें से भी बहुत से यापनीय संघ से अलग होते समय छूट गये । फलतः श्वेताम्बर-साहित्य से ली हुई कई गाथाओं का वे वास्तविक अर्थ नहीं पा सके और कल्पनाबल से नये नये अर्थ लगाते हुए प्राचीन स्थविर-परम्परा से बहुत दूर निकल गये । अब हम एक अन्य गाथा का उल्लेख करेंगे जो भगवती आराधना में (पृष्ठ ३९२) दृष्टिगोचर होती है, पर वास्तव में श्वेताम्बरीय शाखा के बृहत्कल्पभाष्य की है "देसामासियसुत्तं, आचेलकं ति तं खु ठिदिकप्पे । लुत्तोत्थ आदिसद्दो, जह तालपलंबसुत्तम्मि ॥११२३॥" इस गाथा के चतुर्थ चरण में प्रयुक्त, तालप्रबंध सूत्र के नामोल्लेख से यह बात निर्विवाद सिद्ध हो जाती है कि यह गाथा श्वेताम्बरीय है, क्योंकि इसमें जिस तालप्रबंध सूत्र का उल्लेख किया गया है वह श्वेताम्बरीय 'बृहत्कल्प' का प्रथम सूत्र है और आजतक उपलब्ध होता है । __इसी भगवती आराधना में एक 'जहणा' नामक अधिकार है जिसमें साधु के मृत शरीर को त्यागने की विधि है । यह सारा का सारा अधिकार श्वेताम्बरीय आवश्यकनियुक्त्यन्तर्गत 'पारिठावणियाविधि' की मूलगाथाओं और प्राकृतचूणि के आधार पर से कुछ फेरफार के साथ संकलित किया गया है, तथापि गुरु सम्प्रदाय न होने के कारण दिगम्बराचार्य कहीं कहीं नियुक्तिगत गाथाओं का भाव नहीं समझ सके । पाठकों के मनोविनोदार्थ हम एक दो गाथाओं की यहाँ चर्चा करेंगे । पारिठावणियाविधिकार विधान करते हैं, "जहाँ साधु का शव परठना (छोड़ना) हो वहाँ कुश का संथारा (पथारी) करना चाहिये । कुश के अभाव में 'चूर्ण' अथवा 'केसर' से उस स्थान में 'ककार' करना और उसके नीचे 'तकार' बाँधना ।" इस विषय का प्रतिपादन करनेवाली गाथायें नीचे मुजब हैं Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.008068
Book TitleShraman Bhagvana Mahavira
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKalyanvijay Gani
PublisherShardaben Chimanbhai Educational Research Centre
Publication Year2002
Total Pages465
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Biography, History, & Philosophy
File Size8 MB
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