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जिनकल्प और स्थविरकल्प
३४३ योगात्प्राङ्मासमात्रावस्थानं पश्चाच्च मासमात्रावस्थानं श्रावकलोकादिसंक्लेशपरिहरणाय, अथवा ऋतौ ऋतौ मासमात्र स्थातव्यं मासमात्रं च विहरणं कर्तव्यं इति मासः श्रमणकल्पोऽथवा वर्षाकाले योगग्रहणं चतुषु चतुर्षु मासेषु नन्दीश्वरकरणं च मासश्रमणकल्पः ।
पज्जो-पर्या पर्युपासनं निषद्यकायाः पंचकल्याणस्थानानां च सेवनं 'पर्ये' त्युच्यते । श्रमणस्य श्रामण्यस्य वा कल्पो-विकल्पः श्रमण-कल्पः । (मूलाचार भा० २ पृ० १०४-१०५)
टीकाकार मासकल्प के तीन अर्थ लगाते हैं, और वे भी 'अथवा' कह कर पूर्व पूर्व को रद्द करके । पहले कहते हैं-'चातुर्मास्य के पहले एक मास जहाँ रहें वहीं वर्षाचातुर्मास्य करना और चातुर्मास्य के बाद फिर मास भर वहीं रहना उसका नाम मासकल्प है ।' इस अर्थ पर निर्भर न रहते हुए वे 'अथवा' कहकर फिर कहते हैं-'एक-एक ऋतु में एक-एक मास ठहरना और एक-एक मास विहार करना यह मासकल्प है।' परन्तु इस अर्थ पर भी उनको पूरा विश्वास नहीं आता और तीसरा अर्थ लगाते हुए कहते हैं—'चार-चार मास में योगग्रहण और नन्दीश्वर करना मासकल्प है ।'
कितनी अनिश्चित और असंगत व्याख्या है ? क्या कोई कह सकता है कि छ: मास तक एक स्थान पर रहना 'मासकल्प' कहा जा सकता है ? अथवा चार मास में होने वाली कोई क्रिया 'मासकल्प' का नाम पा सकती है ?
अब 'पज्जोसवणकप्पो' शब्द की हालत सुनिये । टीकाकार ‘पज्जो' शब्द को अलग करके उसका संस्कृत 'पर्या' बनाते हैं और उसकी व्याख्या करते हैं 'पर्युपासना'; परन्तु उन्हें यह तो सोचना था कि 'पज्जो' का संस्कृत 'पर्यः' बनेगा या 'पर्या'; फिर पर्या शब्द की सिद्धि में और उसका 'पर्युपासना' अर्थ करने में किसी कोष या व्याकरण का भी आधार है या नहीं ? परन्तु इसकी क्या कहें, 'कल्प' का भी अर्थ वे 'विकल्प' करते हैं, जिसका कि यहाँ कोई प्रसंग नहीं । इन बातों से क्या उन्होंने अपनी स्थिति स्पष्ट नहीं कर दी है कि इन परिभाषाओं को समझने के लिये उनके पास
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