________________
जिनकल्प और स्थविरकल्प
" सोलह सय चउतीसा, कोडी तियसीदिलक्खयं चैव । सत्तसहस्ससया, अट्ठासीदीय पदवण्णा ॥ १ ॥ "
इस हिसाब से दिगम्बरों के एक ही श्रुत पद के बत्तीस अक्षरात्मक इक्यावन करोड़ आठ लाख चौरासी हजार छः सौ और साढ़े इक्कीस (५१०८८४६२१|| ) श्लोक होते हैं। क्या कोई कहेगा कि इतने श्लोक वाला एक श्रुतपद भी पढ़ने को कोई मनुष्य समर्थ हो सकता होगा ? कभी नहीं । सच बात तो यह है कि उक्त 'पद - परिभाषा' एक निरी कल्पना है और वह इसलिये गढ़ी गई है, कि श्रुतज्ञान को इतना बड़ा समुद्र बताकर उसके लिखने की अशक्यता सिद्ध की जाय और श्वेताम्बरों से कह दिया जाय कि 'तुमने जो आगम लिखे हैं, वे असली नहीं हैं । असल आगम इतने बड़े होते हैं कि उन्हें कोई लिख ही नहीं सकता ।' परन्तु दिगम्बरों की इस लोकोत्तर कल्पना को मनुष्यों की दुनिया में रहनेवाला तो कोई भी विचारक मानने को तैयार नहीं होगा । एक यही नहीं, ऐसी अनेक नयी परिभाषाओं की सृष्टि करके परम्परागत जैन आगमों को अप्रामाणिक ठहराने और उनपर से लोगों की श्रद्धा हटाने की चेष्टाएँ की गई हैं ।
३४१
अब हम यह देखेंगे कि कबतक तो दिगम्बर शाखा ने जैन आगमों को माना और कब इनको मानने से इनकार किया ।
ऊपर कहा जा चुका है कि दिगम्बर-सम्प्रदाय का पूर्वनाम 'यापनीय संघ' था, जो श्वेताम्बरीय - परम्परा के आचार-विचार का अनुसरण करनेवाला और कतिपय जैन आगमों को भी माननेवाला था । परन्तु पिछले दिगम्बराचार्य यापनीय-संघ - विषयक अपना पूर्व सम्बन्ध भूल गये और नग्नता के समर्थक होते हुए भी श्वेताम्बरीय आगम और आचार विचारों के कारण उसे 'खच्चर' तक की उपमा देने में न सकुचाये । देखिये षट्प्राभृत की टीका में श्रुतसागर के निम्नोद्धृत वाक्य
Jain Education International
"यापनीयास्तु वेसरा इवोभयं मन्यन्ते, रत्नत्रयं पूजयन्ति कल्पं च वाचयन्ति, स्त्रीणां तद्भवे मोक्षं, केवलिजिनानां कवलाहारं, परशासने सग्रन्थानां मोक्षं च कथयन्ति ।"
For Private Personal Use Only
www.jainelibrary.org