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श्रमण भगवान् महावीर परम्परा को परापेक्षता से मुक्त करने का उद्योग किया' ।
यद्यपि शुरू ही शुरू में उन्हें पूरी सफलता प्राप्त नहीं हुई । यापनीय संघ का अधिक भाग इनके क्रियोद्धार में शामिल ही नहीं हुआ और शामिल होने वालों में से भी बहुत सा भाग इनकी सैद्धान्तिक क्रान्ति के कारण विरुद्ध हो गया तथा धीरे धीरे दिगम्बर संघ द्राविड़ संघ आदि कई भागों में टूट गया था, तथापि इनका उद्योग निष्फल नहीं गया । इनके ग्रन्थ और विचार धीरे-धीरे विद्वानों के हृदय में घर करते जाते थे और विक्रम की नवीं सदी के अकलंकदेव, विद्यानन्दी आदि दिग्गज दिगम्बर विद्वानों के द्वारा तार्किक पद्धति से परिमाजित होने के उपरान्त तो वे और भी आकर्षक हो गये । फलस्वरूप प्राचीन सिद्धान्तों का लोप और इन नये ग्रन्थों का सार्वत्रिक प्रसार हो गया ।
इस प्रकार आधुनिक दिगम्बर सम्प्रदाय और इसके श्वेताम्बर विरोधी सिद्धान्तों की नींव विक्रम की छठी शताब्दी में आचार्य कुन्दकुन्द ने डाली ।
हमारे उक्त विचारों का विशेष समर्थन नीचे की बातों से होगा
१. कुन्दकुन्दाचार्य ने अपने किसी भी ग्रन्थ में अपनी गुरु-परंपरा का ही नहीं अपने गुरु का भी नामोल्लेख नहीं किया। इससे मालूम होता है कि कुन्दकुन्द के क्रियोद्धार में उनके गुरु भी शामिल नहीं हुए होंगे और इसी कारण से उन्होंने शिथिलाचारी समझकर अपने गुरु प्रगुरुओं का नाम निर्देश नहीं किया होगा ।
२. कर्मप्रकृति, प्राभृत और कषायप्राभृत जो कि दिगम्बर जैन सम्प्रदाय के मौलिक सिद्धान्त ग्रन्थ थे । आज कहीं भी उपलब्ध नहीं होते, इतना ही नहीं, बल्कि उनकी प्राचीन टीकाओं का भी आज कहीं अस्तित्व नहीं रहा । इसका कारण क्या होना चाहिये ? कुन्दकुन्द के पहले के अन्य ग्रन्थ तो रह जायँ और मौलिक सिद्धान्त जिनका यह संप्रदाय 'परमागम' कहकर बहुमान करता है आज न रहें । इसका अवश्य ही कारण होना चाहिये
और जहाँ तक हम समझते हैं, इसका कारण एकान्त नग्नवादिता आदि नये सिद्धान्त हैं । जब तक कुन्दकुन्द आदि के एकान्त नग्नतावाद का और स्त्रीमुक्ति तथा केवलिभुक्ति के निषेधवाद का सार्वत्रिक प्रचार नहीं हुआ था तब तक उन प्राचीन सिद्धान्तों का जिनमें इन ऐकान्तिक वादों का विधान न होगा—इन सम्प्रदायवालों ने अनुसरण और संरक्षण किया और जब से कुन्दकुन्द का एकान्तवाद सर्वमान्य हो गया तब से उन प्राचीन सिद्धान्तों की उपेक्षा की गयी और परिणाम स्वरूप वे कालान्तर में सदा के लिये नष्ट हो गये ।
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