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जिनकल्प और स्थविरकल्प
३३३ चूणियों में इस स्तूप का वर्णन मिलता है । इन ग्रन्थों के रचनाकाल में यह जैनों का अत्यन्त प्रसिद्ध और प्रिय तीर्थ माना जाता था । चूर्णिकारों के समय में यह 'देवनिर्मित स्तूप' के नाम से प्रसिद्ध हो चुका था । व्यवहार-चूर्णि में इसकी उत्पत्ति-कथा भी लिखी मिलती है । इस स्तूप में से उक्त लेखों से भी सैकड़ों वर्षों के पुराने अन्य अनेक लेख, तीर्थंकरों की मूर्तियाँ, पूजापट्टक, प्राचीन पद्धति की अग्रावतार-वस्त्रवाली जैन श्रमणों की मूर्तियाँ और अन्य अनेक स्मारक मिले हैं, जो सभी श्वेताम्बर परम्परा के हैं और लखनऊ तथा मथुरा के सरकारी अजायबघरों में संरक्षित हैं । इन अति प्राचीन स्मारकों में दिगम्बरों से सम्बन्ध रखनेवाला कोई पदार्थ अथवा उनके चतुर्दश पूर्वधर, दशपूर्वधर, एकादशांगधर, अंगधर या उनके बाद के भी किसी प्राचीन आचार्य का नाम या उनके गण, गच्छ या संघ का कहीं नामोल्लेख तक नहीं है । जैन श्वेताम्बरपरम्परा कितनी प्राचीन है और उसके वर्तमान आगम कैसे प्रामाणिक हैं इसके निर्णय के लिये हमारा उपर्युक्त थोड़ा सा विवेचन ही पर्याप्त होगा । आधुनिक दिगम्बर जैन परम्परा की अर्वाचीनता
हम ऊपर देख आये हैं कि दिगम्बर शिवभूति ने जो सम्प्रदाय चलाया था वह दक्षिण में जाकर 'यापनीय संघ' के नाम से प्रसिद्ध हो गया था । यद्यपि कर्नाटक देश में इसका पर्याप्त मान और प्रचार था तथापि विक्रम की छठी शताब्दी के लगभग उसके साधुओं में कुछ चैत्यवास का असर हो गया था और वे राजा वगैरह की तरफ से भूमिदान वगैरह लेने लग गये थे । अर्वाचीन कुन्दकुन्द जैसे त्यागियों को यह शिथिलता अच्छी नहीं लगी । उन्होंने केवल स्थूल परिग्रह का ही नहीं बल्कि अब तक इस सम्प्रदाय में जो आपवादिक लिङ्ग के नाम से वस्त्रपात्र की छूट थी । उसका भी विरोध किया और तब तक प्रमाण माने जाने वाले श्वेताम्बर आगमग्रन्थों को भी इन उद्धारकों ने अप्रामाणिक ठहराया और उन्हीं आगमों के आधार पर अपनी तात्कालिक मान्यता के अनुसार नये धार्मिक ग्रन्थों का निर्माण करना शुरू किया । कुन्दकुन्द वगैरह जो प्राकृत के विद्वान थे उन्होंने प्राकृत में और देवनन्दी आदि संस्कृत के विद्वानों ने संस्कृत के ग्रन्थ निर्माण कर अपनी
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