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श्रमण भगवान् महावीर (२) "सिद्धं महाराजस्य कनिष्कस्य राज्ये संवत्सरे नवमे ॥ ९ ॥ मासे प्रथ१ दिवसे ५ अस्यां पूर्वाये कोटियतो गणतो, वाणियतो कुलतो, वइरितो साखातो, वाचकस्य नागनंदिसनिर्वर्तनं ब्रह्मधूतुये भटिमित्तस्स कुटुंबिनिये विकटाये श्रीवर्द्धमानस्य प्रतिमा कारिता सर्वसत्वानं हित सुखाये ।"
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ऊपर के दोनों शिलालेखों में जिन गण, शाखा और कुल का उल्लेख हुआ है वे आर्य सुहस्ति के पट्ट शिष्य सुट्ठियसुप्पड़िबुद्ध अपरनाम कोटिकाकन्दक से निकले थे । देखो, 'कल्पथेरावली' का निम्नलिखित
पाठ
"थेरेर्हितो सुट्ठिय- सुप्पडिबुद्धेर्हितो कोडिय - काकन्दएहिंतो वग्घावच्चसगुत्तेहिंतों इत्थ णं कोडियगणे नामं गणे निग्गए । तस्स णं इमाओ चत्तारि साहाओ, चत्तारि कुलाई एवमाहिज्जंति । से किं तं साहाओ ? साहाओ एवमाहिज्जंति तं जहा
उच्चानागारी १ विज्जाहरी य २ वइरी य ३ मज्झिमिल्ला य ४ । कोडियगणस्स एया, हवंति चत्तारि साहाओ ||१|| से तं साहाओ ॥ से किं तं कुलाई ? कुलाई एवमाहिज्जंति तं जहा -
पढमित्थ बंभलिज्जं १, बिइयं नामेण बत्थलिज्जं तु २, तइयं पुण वाणिज्जं ३, चउत्थयं पण्हवाहणयं ४ ॥१॥
( कल्पसूत्र मूल दे० ला० पा० ५५) विचारकगण ऊपर दिये हुए लेखों और कल्पसूत्र के गण, शाखा और कुलों का मिलन करें और सोचें कि जैन श्वेताम्बर - परम्परा कितनी प्राचीन होनी चाहिये और जिसकी बातें लगभग दो हजार वर्ष के शिलालेखों से सत्य प्रमाणित होती हैं, वह कल्पसूत्र कितना प्रामाणिक होना चाहिए ।
ऊपर हमने मथुरा के जिन लेखों और चित्रपट्टों का उल्लेख किया है वे सब मथुरा-कंकाली टीला के नीचे दबे हुए एक जैन स्तूप में से सरकारी शोधखातावालों को उपलब्ध हुए हैं । श्वेताम्बर परम्परा के आगमग्रन्थ आचाराङ्ग-निर्युक्ति में तथा निशीथ, बृहत्कल्प और व्यवहार सूत्रों के भाष्यों और
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