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जिनकल्प और स्थविरकल्प
३२९ नहीं कि बौद्ध त्रिपिटकों में 'निग्गन्थ' शब्द केवल निर्ग्रन्थ साधुओं के लिये प्रयुक्त हुआ है; श्रावकों के लिये नहीं । जहाँ कहीं भी जैन श्रावकों का प्रसंग आया है, वहाँ सर्वत्र 'निग्गंठस्स नाथपुत्तस्स सावका' निर्ग्रन्थ ज्ञातपुत्र के श्रावक) अथवा 'निगंठसावक' (निर्ग्रन्थों के श्रावक) इस प्रकार श्रावक शब्द का ही उल्लेख हुआ है, न कि 'निग्गंथ' शब्द का । इसलिये 'निग्गंठ' शब्द का 'श्रावक' अर्थ लगाना कोरी हठधर्मी है ।
बौद्धसूत्र मज्झिमनिकाय में निर्ग्रन्थ-संघ के साधु सच्चक के मुख से बुद्ध के समक्ष गोशाल मंखलिपुत्त तथा उसके मित्र नन्दवच्छ और किस्ससंकिच्च के अनुयायियों में पाले जाने वाले आचारों का वर्णन कराया है।
सच्चक कहता है-'ये सर्व वस्त्रों का त्याग करते हैं (अचेलक), सर्व शिष्टाचारों से दूर रहते हैं (मुक्ताचार), आहार अपने हाथों में ही चाटते हैं (हस्तापलेखण) इत्यादि ।
समझने की बात है कि यदि निर्ग्रन्थ जैन श्रमण सच्चक स्वयं अचेलक और हाथ में भोजन करनेवाला होता तो वह आजीवक भिक्षुओं का 'हाथ चाटनेवाले' आदि कहकर उपहास कभी नहीं करता । इससे भी जाना जाता है कि महावीर के साधु वस्त्रपात्र अवश्य रखते थे ।
बौद्ध दीर्घनिकाय के पासादिक सुत्तंत में महावीर के निर्वाण के बाद उनके साधुओं में झगड़ा होने की बात कही गई है और लिखा है कि निर्ग्रन्थज्ञातपुत्र के जो उज्ज्वल वस्त्रधारी गृहस्थ श्रावक थे वे भी निर्ग्रन्थ ज्ञातपुत्र के साधुओं से विरक्त हो गये । ग्रन्थ के मूल शब्द ये हैं-'येपि निग्गण्ठस्स नाथपुत्तस्स सावका गिही ओदातवसना तेपि निग्गण्ठेसु नाथपुत्तियेसु निविण्णरूवा ।" इसमें प्रयुक्त 'ओदातवसना' शब्द का अर्थ किसी अंग्रेज विद्वान् ने 'श्वेतवस्त्रधारी' ऐसा किया । इस पर से बाबू कामताप्रासाद जैन जैसे विद्वानों ने मान लिया कि श्वेतवस्त्रधारी महावीर के श्रावक होते थे । इसलिये बौद्धग्रन्थों का 'एकसाटक' निर्ग्रन्थ भी श्वेतवस्त्रधारी जैनश्रावक ही होगा । परन्तु वे यह तो देखें कि यहाँ पर साक्षात् 'श्रावक' शब्द का उल्लेख हुआ है । यदि 'निग्गंथ' शब्द श्रावकवाची होता तो यहाँ 'सावक' शब्द के
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