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श्रमण भगवान् महावीर भट्टारक रत्ननन्दी की हड्डियों को पूजने की कल्पना ने तो पहले के दोनों लेखकों को मात कर दिया । श्वेताम्बर जैन साधु अपने पास जो स्थापनाचार्य रखतें हैं उन्हीं को लक्ष्य करके रत्ननन्दी की यह कल्पना है। श्वेताम्बर जैन सम्प्रदाय के साधुओं में अपने आचार्य की स्थापना रखने की प्राचीन प्रवृत्ति है । स्थापना में आचार्य की मूर्ति या चित्र नहीं किन्तु पाँच कौड़े रखते हैं । जिनका आकार घुटने के ऊपर की हड्डी से कुछ मिलता जुलता सा होता है, भट्टारक जी महाराज ने इन्हें कहीं देख लिया और तुरन्त लिख दिया कि 'ये शान्तिसूरि की हड्डियाँ हैं ।' वे जो यह कहते हैं कि 'आज भी वे 'खमणादिहडी' इस नाम से प्रसिद्ध हैं, सो शायद यह कल्पित नाम नन्दी क्रिया में 'खमासमणहत्थेणं' इस शब्द के ऊपर से अथवा गुरु को वन्दन करने के लिए जो 'खमासमणों,' शब्द बोलते हैं उसके ऊपर से यह 'खमणादिहडी' नाम गढ़ लिया गया है ।
इस प्रकार श्वेताम्बरोत्पत्ति के विषय में दिगम्बराचार्यों ने जो कथाएँ गढ़ी हैं उनका शरीर भानमती के पिटारे की तरह इधर उधर की नयी पुरानी बातों से भरा गया है । विक्रम संवत् १३६ में श्वेताम्बरों के उत्पन्न होने का जो कथन है, उसका तात्पर्य इतना ही है कि लगभग इसी अर्से में शिवभूति ने जिनकल्प की हिमायत की थी और स्थविरों के निषेध करने पर भी वे जिनकल्पी बनकर गच्छ से निकल गये थे । सम्भव है कि नग्नता का सक्रिय विरोध करने के लिये स्थविरकल्प के नाम से चली आती हुई ऐच्छिक नग्नता का प्रचार भी उसके बाद रोक दिया गया हो और अपने विरुद्ध वस्त्रधारियों की इस प्रवृत्ति को पिछले दिगम्बराचार्यों ने 'श्वेताम्बरमतोत्पत्ति' के नाम से प्रसिद्ध कर दिया हो । ऐसा होना संभव भी है, क्योंकि श्वेताम्बरों ने दिगम्बरों के मत की उत्पत्ति लिखी थी तो दिगम्बरों को भी उसका कुछ न कुछ उत्तर तो देना ही था । आधुनिक विद्वानों के विचार
हम प्रारम्भ में ही कह आये हैं कि महावीर के शिष्यों का मुख्य भाग वस्त्रधारी होता था, तथापि संहनन, श्रुतज्ञान आदि की योग्यता प्राप्त करने के उपरान्त कितने ही जिनकल्प का स्वीकार कर नग्नावस्था में भी रहते थे
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