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जिनकल्प और स्थविरकल्प
३२३ विशेषावश्यकभाष्यादि अनेक भाष्य और अन्य प्रकरण ग्रन्थों की रचना की है। दिगम्बर विद्वान् इनको इतना कोसते हैं इसका यही कारण है कि इन्होंने दिगम्बरों का बड़ी कट्टरता पूर्वक खंडन करके श्वेताम्बर परम्परा को पुष्ट किया था ।
भट्टारक देवसेन उपद्रव की शान्ति के लिये शान्ति व्यन्तर की पूजा करने की जो बात कहते हैं, वह वास्तव में श्वेताम्बर जैन परम्परा में प्रसिद्ध 'शान्तिस्त्रात्र' की सूचना है । श्वेताम्बरों में बहुत पुराने समय से 'जिन भगवान् का जन्माभिषेक महोत्सव' करने की प्रवृत्ति चली आती थी जो पिछले समय में 'शान्तिस्नात्र' और 'शान्तिपूजा' इन नामों से प्रचलित हुई थी जो आज तक इन्हीं नामों से प्रसिद्ध है। इसमें भगवान् आदिनाथ, अजितनाथ, शान्तिनाथ और पार्श्वनाथ की प्रतिमाओं का २७ बार अथवा १०८ बार अभिषेक और पूजन किया जाता है । इसके प्रारम्भ में ग्रह और दिक्पालों को बलिदान भी किया जाता है । मालूम होता है भट्टारक देवसेनजी ने इसी शान्तिपूजा का नाम सुनकर द्वेषवश 'शान्तिव्यन्तर' और उसकी पूजा की कल्पना गढ़ ली है ।
__पं० वामदेवजी 'आठ अंगुल लंबी चतुष्कोण काठ की पट्टी पर श्वेतवस्त्र बिछाकर शान्तिव्यन्तर की पूजा करने की बात कहते हैं। यह कथन वस्तुतः श्वेताम्बर सम्प्रदाय में प्रचलित योग क्रिया का सूचक है । श्वेताम्बर मुनि सूत्रों के योग-सम्बन्धी कालग्रहण, स्वाध्याय प्रस्थापन आदि क्रियायें करते समय करीब आठ अंगुल लम्बी और चार पाँच अंगुल चौड़ी एक काठ की पट्टी अपने सामने रखते हैं और उस पर श्वेतवस्त्रिका भी बिछाते हैं । उसके आगे जो विधि की जाती है उसमें हस्तक्रिया भी ऐसी ही होती है, जिसे अनभिज्ञ आदमी नमस्कार ही समझ ले । पं० वामदेवजी ने इस प्रकार की योग-क्रिया करते हुए श्वेताम्बर मुनियों को कहीं देखकर यह मान लिया है कि यह शान्तिव्यन्तर की पूजा करते हैं ।
पं० वामदेवजी 'पर्युपासन' यह नाम कहाँ से उठा लाये इसका कुछ पता नहीं चलता, क्योंकि इस नाम का या इसके मिलते जुलते नाम का श्वेताम्बर सम्प्रदाय में कोई भी देव नहीं माना गया है ।
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