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श्रमण भगवान् महावीर विक्रम की दूसरी शताब्दी के द्वितीय चरण में वलभी में 'मतोत्पत्ति' बताना निराधार है, क्योंकि उस समय वलभी का अस्तित्व था इसमें कोई प्रमाण नहीं है, वलभी कनकसेन के समय विक्रम की तीसरी शताब्दी में बसी थी, यह बात इतिहास प्रसिद्ध है।
वलभी नगरी और शान्तिसूरि इन दो नामों के उल्लेख से हम समझते हैं कि इन कथाओं का सम्बन्ध विक्रम की छठी शताब्दी के प्रथम चरण में वलभी में घटी हुई किसी घटना के साथ होना चाहिए ।
वीर संवत् ९८० (विक्रम संवत ५१०) में वलभी में माथुर और वालभ्य नाम से प्रसिद्ध दो श्वेताम्बर जैन संघों का सम्मेलन हुआ था और दोनों संघों ने दोनों वाचनाओं का समन्वयपूर्वक एकीकरण किया था । इस सम्मेलन में माथुर संघ के प्रधान देवर्द्धिगणि क्षमाश्रमण थे और वालभ्य संघ के प्रमुख कालकाचार्य और उपप्रमुख गंधर्व वादि वेताल शान्तिसूरि ।
हम ऊपर कह आये हैं कि वालभ्य संघ नग्नता धारण करने वालों के विषय में बहुत अनुदार था और इसी कारण महागिरि के शिष्य बलिस्सह और स्वाति जैसे स्थविरों के नाम भी अपनी युगप्रधानावली में रखने की उदारता नहीं कर सका । आश्चर्य नहीं कि इसी सम्मेलन में दिगम्बरों के साथ भी मेल जोल करने सम्बन्धी कोई प्रस्ताव उपस्थित हुआ हो, पर वालभ्य संघ तथा खासकर शान्तिसूरि के शिष्यों ने उसे सफल न होने दिया हो और इस कारण दिगम्बर परम्परावालों ने शान्तिसूरि और उनके शिष्यों को कोसा हो ।
सभी दिगम्बर लेखक श्वेताम्बरमत-प्रवर्तक का नाम 'जिनचन्द्र' लिखते हैं और वर्तमान जैन आगम उसी जिनचन्द्र के बनाये हुए बताते हैं । हम समझते हैं कि दिगम्बरों का यह 'जिनचन्द्र' और कोई नहीं, आचार्य 'जिनभद्रगणि क्षमा श्रमण' हैं; जिनका समय विक्रम की छठी और सातवीं सदी का मध्य भाग था ।
जिनभद्र उस समय की श्वेताम्बर परम्परा के युगप्रधान आचार्य ही नहीं वरन् कट्टर साम्प्रदायिक सिद्धान्तकार भी थे । इन्होंने
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