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जिनकल्प और स्थविरकल्प
३२१ तुम्बी और श्वेतवस्त्र धारण करने के कारण 'श्वेताम्बर' नाम पड़ा बताते हैं, वामदेव काठ की पट्टी पर श्वेतवस्त्र स्थापन करके व्यन्तर देव की पूजा करने के कारण 'श्वेताम्बर' नाम पड़ा लिखते हैं, और रत्ननन्दी रानी चन्द्रलेखा के कहने से श्वेतवस्त्र धारण करने से 'श्वेताम्बर' मत प्रकट होना लिखते हैं ।
देवसेन और वामदेव, दूसरे नैमित्तिक भद्रबाहु ने उज्जयिनी से जिस दुर्भिक्ष के कारण दक्षिण में विहार किया था उसी दुर्भिक्ष के समय श्वेताम्बरों की उत्पत्ति बताते हैं, तब रत्ननन्दी दुर्भिक्ष का वृत्तान्त प्रथम श्रुतकेवली भद्रबाहु के साथ जोड़ते हैं और उस समय उज्जयिनी में 'अर्धफालक' मत की उत्पत्ति हुई लिखते हैं और फिर बहुत समय के बाद वलभी में सुभिक्ष के समय में रानी के कहने से श्वेत वस्त्रों को धारण कर 'श्वेताम्बर' हुए लिखते हैं ।
देवसेन जिनचन्द्र द्वारा शान्तिव्यन्तर की सर्व द्रव्यों से अष्टविध पूजा प्रचलित होना और अपने समय तक उसका चालू रहना बताते हैं, तब वामदेव
और रत्ननन्दी आठ अंगुल लम्बी चौरस काठ की पट्टी पर श्वेत वस्त्र स्थापन कर पूजा करना और अपने समय तक उसका चालू रहना बताते हैं ।
देवसेन शान्तिव्यन्तर को श्वेताम्बरों का पूज्य कुलदेव मात्र लिखते हैं तब पिछले दोनों लेखक उसका 'पर्युपासन' नाम होना बताते हैं ।
रत्ननन्दी शिष्यों द्वारा शान्ति की हड्डियों को इकट्ठा कर पूजना और वह रीति अपने समय तक चालू रहना और उसका नाम 'खमणादिहडी' प्रसिद्ध होना लिखते हैं जिसका कि प्रथम दो लेखकों ने कुछ भी उल्लेख नहीं किया ।
इस प्रकार इन लेखकों के परस्पर विरुद्ध कथन से ही इन कथाओं का बाह्य कलेवर तो स्वयं जर्जरित हो जाता है; परन्तु 'स्थान' और 'समय' इन दो बातों में ये सभी लेखक एक मत हैं, अर्थात् सब विक्रमराजा की मृत्यु के बाद १३६ वर्ष बीतने पर वलभी नगरी में श्वेताम्बर मत का उत्पन्न होना बताते हैं ।
अब हम यह देखेंगे कि लेखकों की ये बातें अपने उद्भव में कुछ आधार भी रखती हैं या नहीं ।
श्रमण-२१
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