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प्रकार अपनी बुद्धि से सूत्र में लिख दिया ।
'इस प्रकार बहुत समय व्यतीत हो गया । एक समय वलभी के राजा लोकपाल की रानी चन्द्रलेखा, जो कि उज्जयिनी के राजा चन्द्रकीर्ति की पुत्री और अर्धफालक मतवालों की शिष्या थी, अपने पति से बोली'कान्यकुब्ज' नगर में हमारे गुरु महाराज विचरते हैं सो आप उन्हें यहाँ बुलायें ।' रानी के कथन से राजा ने जिनचन्द्रादि अर्धफालकों को वलभीपुर बुलाया । प्रवेशमहोत्सव के दिन राजा उनकी अगवानी के लिये गया, पर साधुओं को नग्न और वस्त्रधारियों से विलक्षण वेषवाला देख कर वह वापस चला आया । रानी को इस बात का पता लगते ही गुरु के पास काफी संख्या में श्वेत वस्त्र भेजे जिन्हें उन्होंने लेकर धारण किया । फिर राजा ने उनकी भक्तिपूर्वक पूजा की । श्वेतवस्त्रों के धारण करने से उसी दिन से अर्धफालक मत से 'श्वेताम्बर' मत प्रकट हुआ ।
श्रमण भगवान् महावीर
'विक्रम राजा की मृत्यु के बाद एक सौ छत्तीस वर्ष बीतने पर लोक में श्वेताम्बर नामक मत उत्पन्न हुआ । केवली को भोजन, स्त्री और ससंग साधुओं को उसी भव में मोक्ष, गर्भापहार आदि बातों का प्रतिपादक आगमसंग्रह उसी मूढ़ जिनचन्द्र आचार्य ने रचा ।'
मीमांसा
इन कल्पित कथाओं को यहाँ लिख कर इन्हें हम अप्राप्त महत्त्व नहीं देते और न इनकी मीमांसा करने का ही कष्ट उठाते, परन्तु हम देखते हैं कि आजकल के बहुतेरे दिगम्बर विद्वान् भी इन्हें सत्य मानते हैं और इन्हीं बूतों पर श्वेताम्बर जैन संघ को अर्वाचीन ठहराने की चेष्टा करते हैं ।
प्रथम तो देवसेन भट्टारक दसवीं और पं० वामदेव और रत्ननन्दी भट्टारक क्रमशः सोलहवीं सत्रहवीं सदी के लेखक हैं। इनके पहले के किसी भी दिगम्बरीय जैन ग्रन्थ में इन कथाओं का उल्लेख नहीं है । इस दशा में क्रमशः साढ़े आठ सौ चौदह सौ और पन्द्रह सौ वर्ष के बाद निराधार लिखे गये ये किस्से स्वयं ही महत्त्वहीन ठहरते हैं । दूसरे ये सभी लेखक इस विषय में एकवाक्य भी नहीं हैं । देवसेन दुर्भिक्ष के कारण दण्ड, कम्बल,
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