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जिनकल्प और स्थविरकल्प
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उन्हें प्रतिवन्दना नहीं की और कहा - 'यह कौन सा नया मत निकाला है ?' साधु लज्जित होकर वापस आये और सब वृत्तान्त अपने गुरु को कह सुनाया ।
रामल्य, स्थूलभद्र और स्थूलाचार्य ने सब साधुओं को इकट्ठा करके कहा- 'अब हमें क्या करना चाहिये ?' इस पर स्थूलाचार्य ने अपना अभिप्राय व्यक्त करते हुए कहा - ' - इस बुरे आचार को छोड़ कर जिन मार्ग का स्वीकार कर छेदोपस्थापना करनी चाहिये ।' साधुओं को स्थूलाचार्य की बात पसंद न आयी, उन्होंने कहा - ' इस सुगम मार्ग को छोड़ कर अब दुष्कर मार्ग कौन ग्रहण करेगा ?' स्थूलाचार्य बोले- 'यह मत अच्छा नहीं है, मूलमार्ग को छोड़ कायरों का मार्ग पकड़ना संसार भ्रमण का कारण है' इस पर कितनेक भव्यात्माओं ने तो मूलयागं का स्वीकार कर लिया पर कितनेक उस सत्य वचन से उलटे जलने लगे और बोले— 'यह बूढ़ा क्या जानता है ? इसकी बुद्धि में भ्रम हो गया है, जो इस प्रकार बकता है, परन्तु जब तक यह जीता है हमें सुख से नहीं रहने देगा' यह कह कर उन पापियों ने उन्हें दण्डों से मारकर गड्ढे में फेंक दिया । आर्तध्यान से मरकर आचार्य व्यन्तर देव हुआ और अवधिज्ञान से पूर्व भव देख कर उन नामधारी साधुओं को दुःख देने लगा । तब भयभीत होकर उन्होंने मिलकर उससे अपराध की क्षमा मांगी; देव ने कहा - 'विपरीत मार्ग को छोड़ कर संयम मार्ग को स्वीकार करो ।' साधु बोले- 'यह दुर्धर मार्ग पालना तो कठिन है, पर गुरुबुद्धि से, तुम्हारी पूजा नित्य किया करेंगे' इत्यादि विनय से व्यन्तर को शान्त किया और गुरु की हड्डी लाकर उसमें गुरु की कल्पना कर नित्य पूजने लगे । आज भी क्षपक अस्थि की कल्पना से उसे 'खमणादिहडी' कहते हैं । फिर उसकी शान्ति के लिये आठ अंगुल लम्बी काठ की चतुरस्र पट्टी को 'वही यह है' ऐसी कल्पना कर उसे विधिपूर्वक पूजा । तब उसने उपद्रव की चेष्टा छोड़ दी और इनका 'पर्युपासन' नामक कुलदेव हुआ, जो आज तक बड़ी भक्ति से पूजा जाता है । इस प्रकार लोक में यह 'अर्धफालक' नामक अद्भुत मत कलिकाल के बल से फैल गया ।
'जिस व्रत का इन पञ्चेन्द्रियलोलुपों ने स्वयं आचरण किया था उसी
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