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श्रमण भगवान् महावीर तब श्रावकों ने समहोत्सव उन्हें नगर में लाकर ज्ञाति के बन्धनानुसार भिन्न भिन्न उपाश्रयों में ठहराया ।
'प्रतिवर्ष भीषण दुर्भिक्ष पड़ रहे थे और रंक भीखमंगों की बाढ़सी आ गई थी जिनके भय से गृहस्थ लोग दिन भर किवाड़ बन्द कर रहने लगे। साधु आहार के लिये जाते तो रंक उनके भी पीछे पड़ते, जिन्हें श्रावक लोग लाठियों से मारकर दूर करते, इस विपत्ति से घबरा कर श्रावक लोगों से साधुओं ने कहा-महाराज, भीखमंगों से नाकों दम आ गया है और हम लोग रसोई भी इनके डर से रात्रि के ही समय करते हैं, मिहरबानी करके आप भी रात्रि के ही समय हमारे यहाँ से पात्र में आहार ले जायँ और दिन में उसका भोजन करें। श्रावकों के इस वचन पर सब ने विचार कर के निर्णय किया-'जब तक विषम काल है तब तक ऐसा ही करेंगे, और उन्होंने तुम्बी का पात्र और भिक्षुक तथा कुत्तों के भय से हाथ में लाठी धारण की । गृहस्थों के घर से आहार लाकर एक दूसरे को देने लगे और मकान का द्वार बन्द कर गवाक्ष के उजालें में भोजन करने लगे ।
_ 'एक दिन रात्रि के समय आहार के लिये गये हुए क्षीणकाय नग्न साधु को देककर यशोभद्र की सगर्भा स्त्री राक्षस की भ्रान्ति से डर गई और उसका गर्भपात हो गया । साधु तो यों ही लौट गया पर श्रावकों में इस घटना से हाहाकार मच गया और उन्होंने साधुओं से जाकर कहा-मुनि महाराज ! समय बड़ा खराब है और आपका यह रूप भी भयंकर है, इस वास्ते सुभिक्ष होने तक आप आधा वस्त्र पहनकर कंधे पर कम्बल रख रात्रि के समय आहार लेने जायँ और दिन में भोजन करें ।' श्रावकों की प्रार्थना से साधुओं ने वैसा ही किया और धीरेधीरे वे शिथिल हो गये ।
__ 'बारह वर्ष के बाद देश में फिर सुभिक्ष हुआ और विशाखाचार्य दक्षिण देश से चलकर उत्तर देश में क्रमशः कान्यकुब्ज नगर के बाहर उद्यान में पधारे ।
'स्थूलाचार्य ने विशाखाचार्य को आया सुनकर उन्हें देखने के लिए अपने शिष्य भेजे । मुनियों ने जाकर आचार्य को वन्दन किया पर उन्होंने
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