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जिनकल्प और स्थविरकल्प
३१७ जिसे सुन कर राजा को वैराग्य प्राप्त हुआ और भद्रबाहु के पास दीक्षा ले जैन मुनि हो गया ।
‘एक समय भद्रबाहु स्वामी जिनदास सेठ के घर आहार के लिये गये, तब घर में जाते ही वहाँ पालने में झूलते हुए दो मास के बालक ने उनसे कहा-'जाओ जाओ ।' स्वामी ने पूछा-कितने समय तक ? बालक ने उत्तर दिया---'बारह वर्ष पर्यन्त ।'
'भद्रबाहु ने स्थान पर आकर मुनिसंघ को बुलाकर कहा-साधुओ ! इस देश में बारह वर्ष का भयंकर दुर्भिक्ष पड़ने वाला है, इस वास्ते संयमार्थी मुनियों के लिए अब इस देश में रहना उचित नहीं है ।
'भद्रबाहु के वचन सुनकर संघ वहाँ से विहार करने को तत्पर हुआ । उज्जयिनी के धनाढ्य श्रावकों के वहाँ रहने के लिये आग्रह करने पर भी जब भद्रबाहु ने वहाँ रहना स्वीकार नहीं किया तब उन्होंने रामल्य स्थूलाचार्य, स्थूलभद्र वगैरह साधुओं से वहाँ रहने की प्रार्थना की और उसे उन्होंने स्वीकार किया और बारह हजार साधु वहीं ठहरे ।।
___ 'भद्रबाह उज्जयिनी से बारह हजार साधुओं के साथ कर्नाटक की तरफ विहार कर गये, एक बड़ी अटवी में जाकर उन्होंने निमित्त से अपनी आयुष्य अल्प जानकर विशाखाचार्य को संघ के साथ आगे विहार कराके आप वहीं अटवी में चन्द्रगुप्त मुनि के साथ ठहरे, अनशन किया और समाधि मरण कर स्वर्ग सिधारे । चन्द्रगुप्त मुनि गुरु के चरणों का आलेखन कर उनकी सेवा करते और कान्तारवृत्ति से जीवन निर्वाह करते हुए वहीं रहे ।
'विशाखाचार्य संघ के साथ चोलदेश पहुँचे । उधर उज्जयिनी में घोर दुर्भिक्ष पड़ा । एक दिन रामल्य, स्थूलभद्रादि आहार करके वन में जा रहे थे, उनमें से एक मुनि पीछे रह गये । भीखमंगों ने उनका पेट फाड़ भोजन निकाल खाया यह बात नगर में पहुँचते ही हाहाकार मच गया और श्रावकों ने एकत्र हो मुनि मंडल से प्रार्थना की- 'भगवन् ! बड़ा विषमकाल है इस समय आप नगर में पधार जायँ तो बहुत अच्छा हो । क्योंकि ज्ञानियों के लिये वन और नगर दोनों समान है ।' श्रावकों की प्रार्थना का स्वीकार हुआ
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