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________________ जिनकल्प और स्थविरकल्प ३१५ इस प्रकार का आचरण करते करते कितना ही काल बीतने पर सुभिक्ष हुआ तब 'शान्ति' आचार्य ने अपने संघ को बुलाकर कहा-'अब इस कुत्सित आचरण को छोड़ो और इसकी निन्दा गर्दा कर फिर मुनींद्रों का आचार ग्रहण करो ।' यह वचन सुन कर उनके प्रथम शिष्य ने कहा-'इस अति दुर्धर आचरण को कौन धारण कर सकता है ? न मिलने पर उपवास, दूसरे अनेक दुःसह अन्तराय, एक ही स्थान पर भोजन करना, अचेलक रहना, किसी चीज का न माँगना, ब्रह्मचर्य, जमीन पर सोना, दो दो महीने के बाद असह्य केश लोच करना, नित्य असह्य बाईस परीषहों का सहना (यह सब कठिन आचार इस समय कौन पाल सकता है ? इस समय तो) जो कुछ भी आचार हमने ग्रहण किया है वही सुखकर है, दुःषमकाल में इसे छोड़ नहीं सकते ।' तब शान्ति ने कहा---'चारित्रभ्रष्ट होकर जीवित रहना अच्छा नहीं, यह जैन मार्ग को दूषित करने वाला है। जिन भगवान् के कहे हुए निर्ग्रन्थ प्रवचन को छोड़ अन्यथा प्रवृत्ति करना मिथ्यात्व है।' इस पर रुष्ट होकर शिष्य ने (शान्ति के) मस्तक में एक लम्बे दण्ड से प्रहार किया, जिसकी चोट से स्थविर मरकर व्यन्तर देव हुआ । 'तब पाखण्ड को प्रकट करने वाला शिष्य श्वेतपट संघ का अधिपति हुआ और 'सग्रन्थ को भी निर्वाण हो सकता है" इस प्रकार का धर्मोपदेश करने लगा। 'अपने अपने पाखण्ड के अनुकूल शास्त्रों की रचना की और लोगों में उनका व्याख्यान करके उसी प्रकार का आचार प्रचलित किया । (इस प्रकार) निर्ग्रन्थता को दूषित कर उसकी निन्दा और अपनी प्रशंसा कर वह कपटपूर्वक बहुद्रव्य ग्रहण करके मूर्ख लोगों में अपना जीवन बिताने लगा । ___ 'उधर शान्ति आचार्य का जीव व्यन्तरदेव उपद्रव करके कहने लगा—'जिन धर्म पाकर मिथ्यात्व को मत प्राप्त होओ' । तब डर कर जिनचन्द्र ने उसकी सर्व-द्रव्य-सम्पूर्ण अष्टप्रकारी पूजा बनाई जो आज भी उसको दी हुई है । आज भी वह बलिपूजा सर्व प्रथम उसीके नाम से दी जाती है । वह श्वेतपट संघ का पूज्य-कुलदेव कहा गया । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.008068
Book TitleShraman Bhagvana Mahavira
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKalyanvijay Gani
PublisherShardaben Chimanbhai Educational Research Centre
Publication Year2002
Total Pages465
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Biography, History, & Philosophy
File Size8 MB
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