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श्रमण भगवान् महावीर सामना तो किया ही पर साथ ही साथ अपने विरुद्ध जैन परम्परा के सिद्धान्तों का खण्डन करने में भी कुछ उठा नहीं रक्खा । इसी समय से एक दूसरे को दिगम्बर श्वेताम्बर कहने का भी प्रारम्भ हुआ ।
हम ऊपर कह आये हैं कि पहले पहल आवश्यक-भाष्यकार ने नतन स्थविर परम्परा वालों को 'बोडिया' नाम से सम्बोधित करके इनके मत को "मिथ्यादर्शन' कहा था और इसका उत्तर भी अनेक दिगम्बर विद्वानों ने दे दिया था; पर भट्टारक देवसेन ने अपने दर्शनसार और भावसंग्रह में श्वेताम्बरों
को 'धूर्त, संशयमिथ्यादृष्टि, गृहिकल्पिक, व्रतभ्रष्ट, सग्रन्थलिंगी, मार्गभ्रष्ट' आदि विशेषणों द्वारा उसका व्याज के साथ बदला लिया और इन्हीं का अनुसरण पं० वामदेव, भट्टारक रत्ननन्दी प्रभृति पिछले विद्वानों ने किया ।
भट्टारक देवसेन ने श्वेताम्बरों को गालियाँ देकर ही सन्तोष नहीं माना; किन्तु आवश्यक-भाष्य-चूर्णि में दिगम्बरों की जो उत्पत्ति लिखी है, उसके उत्तर में उन्होंने श्वेताम्बरों की उत्पत्तिविषयक एक कथा भी गढ़ दी, जो नीचे दी जाती है।
__ 'जब विक्रम राजा की मृत्यु हुए एक सौ छत्तीस वर्ष हो चुके तब सौराष्ट्र में 'वलभी' नगरी में श्वेतपट (श्वेताम्बर) संघ की उत्पत्ति हुई ।
'उज्जयिनी नगरी में भद्रबाहु नामक एक अच्छे निमित्त शास्त्रवेत्ता आचार्य थे । उन्होंने निमित्तज्ञान से भविष्य जानकर अपने संघ से कहायहाँ बड़ा दुर्भिक्ष होनेवाला है, जो पूरे बारह वर्ष तक रहेगा । इसलिये अपने अपने संघ के साथ दूसरे देशों में चले जाना चाहिये । भद्रबाह के उक्त वचन को सुनकर सब आचार्य अपने अपने संघ के साथ जहाँ सुभिक्ष था वहाँ चले गये । परन्तु एक शान्तिनामा आचार्य जो कि बहुशिष्य-परिवार युक्त था, सुन्दर सौराष्ट्र देश की वलभी नगरी पहुँचा, जाने के बाद वहाँ भी बड़ा भयंकर दुष्काल पड़ा । जहाँ भिखारियों ने पेट चीर भोजन निकालके खाया । इस निमित्त को पाकर सर्व साधुओं ने कम्बल, दण्ड, तुंबा और ओढ़ने के लिये श्वेत वस्त्र धारण किये । ऋषियों का आचार छोड़कर दीनवृत्ति से माँग कर भिक्षा ली और उपाश्रय में बैठकर यथेच्छ भोजन किया ।
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