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जिनकल्प और स्थविरकल्प
३१३ था और वस्त्रसहित रहते हुए उनकी मुक्ति मान लेने पर अपने वस्त्रधारी प्रतिस्पर्धियों की मुक्ति का निषेध करना असंभव था । इसी तरह केवली का कवलाहर मानने पर उसके लाने के लिये पात्र भी मानना पड़ता और इस दशा में पात्रधारी स्थविरों का खंडन नहीं करने पाते ।
इन नये सिद्धान्तों की योजना से उन्हें अपनी परम्परागत आपवादिक लिङ्ग प्रवृत्ति को स्वयं उठा देना पड़ा, क्योंकि ऐसा किये बिना वे विरोधिपक्ष का सामना कर नहीं सकते थे ।
कुन्दकुन्दाचार्य आदि के इन नये सिद्धान्तों से इस परम्परा को कुछ लाभ हुआ और कुछ हानि भी ।
लाभ यह हुआ कि ऐसी ऐकान्तिक अचेलकप्रवृत्ति से दक्षिण देश में, जहाँ पहले से ही आजीवक आदि नग्न सम्प्रदायवालों का मान और प्रचार था, इनके अनुयायी गृहस्थों की संख्या काफी बढ़ गई और इस कारण साधु समुदाय में भी वृद्धि हुई ।
___ हानि यह हुई कि इनके नये सिद्धान्तों को इस परम्परा के सभी अनुयायियों ने स्वीकार नहीं किया और परिणाम स्वरूप यह परम्परा जो पहले केवल 'मूलसंघ' के नाम से पहचानी जाती थी अब से अनेक भागों में बँट गई और उसके अनेक संघ बन गये, 'यापनीयसंघ', 'काष्ठासंघ', 'माथुरसंघ' वगैरह नामों से प्रसिद्ध हुए और एक दूसरे को भला बुरा कहने लगे ।
विक्रम की सातवीं शताब्दी के प्रारम्भ से दसवीं के अन्त तक के चार सौ वर्षों में दोनों स्थविर परम्पराओं में अनेक दिग्गज विद्वान् उत्पन्न हुए ।
पहली परम्परा के विद्वानों में सिद्धसेनगणि, जिनभद्रगणि क्षमाश्रमण, मल्लवादी, जिनदासगणिमहत्तर, हरिभद्रसूरि, बप्पभट्टिसूरि, शीलाङ्काचार्य आदि के नाम विशेष उल्लेखनीय हैं ।
द्वितीय परम्परा में भी समन्तभद्र, अकलङ्कदेव, विद्यानन्दी, माणिक्यनन्दी, प्रभाचन्द्र, देवसेनभट्टारक आदि अनेक नामी विद्वान् हो गये । इन सभी विद्वानों ने अपनी अपनी कृतियों द्वारा अन्य दार्शनिक विद्वानों का
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