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श्रमण भगवान् महावीर परम्परा से मजबूत मोरचा लिया । पहले जो सूत्र, नियुक्ति आदि प्राचीन आगमों को इनके पूर्वाचार्य मानते आये थे, इन्होंने उनका मानना भी अस्वीकार कर दिया और अपने लिये आचार, विचार और दर्शनविषयक स्वतन्त्र साहित्य की रचना की जिसमें वस्त्र-पात्र रखने का एकान्त रूप से निषेध किया । यद्यपि इस ऐकान्तिक निषेध के कारण उन्हें स्त्रीमुक्ति और केवलिमुक्ति का भी निषेध करना पड़ा, क्योंकि स्त्रियों को सर्वथा अचेलक मानना अनुचित
ने साधुओं की अनेक शिथिल प्रवृत्तियों का खण्डन किया है, जिनमें राजसेवा, ज्योतिषविद्या, मंत्रों से आजीवका, धनधान्य का परिग्रह, मकान, प्रतिमा, उपकरण आदि का मोह, गच्छ का आग्रह, वस्त्र और पुस्तक की ममता आदि बातों का खण्डन लक्ष्य देने योग्य है । कहने की शायद ही जरूरत होगी कि उक्त खराबियाँ साधु समाज में छठी और सातवीं सदी में पूर्ण रूप से प्रविष्ट हो रही थीं । पाँचवीं सदी में इनमें से बहुत कम प्रवृत्तियाँ साधुसमाज में प्रविष्ट होने पायी थीं और विक्रम की तीसरी चौथी शताब्दी तक ऐसी कोई भी बात जैन निर्ग्रन्थों में नहीं पायी जाती थी । इससे यह निस्संदेह सिद्ध होता है कि आचार्य कुन्दकुन्द विक्रम की पाँचवीं शताब्दी के बाद के ग्रन्थकार हैं । यदि ऐसा न होता और दिगम्बर जैन पट्टावलियों के लेखानुसार वे विक्रम की प्रथम अथवा दूसरी सदी के ग्रंथकार होते तो छठी सदी की प्रवृत्तियों का उनके ग्रन्थों में खण्डन नहीं होता ।
(९) कुन्दकुन्द ने अपने ग्रंथों में अनेक स्थान पर "गच्छ" शब्द का प्रयोग किया है जो विक्रम की पाँचवीं सदी के बाद का पारिभाषिक शब्द है । श्वेताम्बरों के प्राचीन भाष्यों तक में 'गच्छ' शब्द प्रयुक्त नहीं हुआ है । हाँ, छठी सातवीं शताब्दी के बाद के भाष्यों, चूर्णियों और प्रकीर्णकों में 'गच्छ' शब्द का व्यवहार अवश्य हुआ है । यही बात दिगम्बर सम्प्रदाय में भी है । जहाँ तक हमें ज्ञात है उनके तीसरी चौथी शताब्दी के साहित्य में "गच्छ" शब्द प्रयुक्त नहीं हुआ ।
(१०) विक्रम की नवीं सदी के पहले के किसी भी शिलालेख, ताम्रपत्र या ग्रंथ में कुन्दकुन्दाचार्य का नामोल्लेख न होना भी यही सिद्ध करता है कि वे उतने प्राचीन व्यक्ति न थे जितना कि अधिक दिगम्बर विद्वान् समझते हैं । यद्यपि मर्करा के एक ताम्रपत्र में, जो कि संवत् ३८८ का लिखा हुआ माना जाता है, कुन्दकुन्द का नामोल्लेख है, तथापि हमारी इस मान्यता में कुछ भी आपत्ति नहीं हो सकती । क्योंकि उस ताम्रपत्र में उल्लिखित तमाम आचार्यों के नामों के पहले 'भटार' (भट्टारक) शब्द लिखा गया है । इससे सिद्ध है कि यह ताम्रपत्र भट्टारक काल में लिखा गया है जो विक्रम की सातवीं सदी के बाद शुरू होता है । इस दशा में ताम्रपत्रवाला संवत् कोई अर्वाचीन संवत् होना चाहिये अथवा तो यह ताम्रपत्र ही जाली होना चाहिये ।
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