SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 368
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ जिनकल्प और स्थविरकल्प विषयक जिन शिथिलताओं की निन्दा की है उनको देखने से यही मानना पड़ता है कि कुन्दकुन्द उस समय के व्यक्ति थे जब कि साधुओं में पर्याप्त शिथिलता आ गई थी। उनमें गृहस्थों के जैसी अन्य प्रवृत्तियों के उपरान्त जमीन जागीर लेने और खेतीवाड़ी कराने तक की शिथिलता प्रविष्ट हो गयी थी। यह समय निश्चित रूप से विक्रमीय पाँचवीं सदी के बाद का था । (६) 'रयणसार' की १८वीं गाथा में सात क्षेत्र में दान करने का उपदेश करने के उपरान्त उसी प्रकरण की गाथा २८वीं में कुन्दकुन्द कहते हैं-"पंचमकाल में इस भारतवर्ष में यंत्र-मंत्र-तंत्र-परिचर्या (सेवा या खुशामद), पक्षपात और मीठे वचनों के ही कारण दान दिया जाता है, मोक्ष के हेतु नहीं । इससे यह साबित होता है कि कुन्दकुन्द उस समय के व्यक्ति थे जब कि इस देश में तांत्रिक मत का खूब प्रचार हो गया था और मोक्ष की भावना की अपेक्षा सांसारिक स्वार्थ और पक्षापक्षी का बाजार गर्म हो रहा था । पुरातत्त्ववेत्ताओं को कहने की शायद ही जरूरत होगी कि भारतवर्ष की उक्त स्थिति विक्रम की पांचवीं सदी के बाद में हुई थी । (७) 'रयणसार' की गाथा ३२वीं में जीर्णोद्धार, प्रतिष्ठा, जिनपूजा और तीर्थवन्दनविषयक द्रव्यभक्षण करनेवाले को नरक-दुःख का भोगी बताकर कुन्दकुन्द कहते हैं-"पूजादानादि का द्रव्य हरनेवाला पुत्रकलत्रहीन, दरिद्र, पंगु, गूंगा, बहरा और अन्धा होता है और चाण्डालादि कुल में जन्म लेता है ।" इसी प्रकार अगली ३३-३६ वी गाथाओं में पूजा और दानादि द्रव्य भक्षण करनेवालों को विविध दुर्गतियों के दु:खभोगी होना बतलाया है । इससे सिद्ध होता है कि कुन्दकुन्द के समय में देवद्रव्य और दान दिये हुए द्रव्यों की दुर्व्यवस्था होना एक सामान्य बात हो गई थी। मंदिरों की व्यवस्था में साधुओं का पूरा दखल हो चुका था और वे अपना आचार मार्ग छोड़ कर गृहस्थोचित चैत्य कार्यों में लग चुके थे । जैन इतिहास से यह बात सिद्ध है कि विक्रम की पाँचवीं सदी से साधु चैत्यों में रहकर उनकी व्यवस्था करने लग गये थे और छठी से दसवीं सदी तक उनका पूर्ण साम्राज्य रहा था । वे अपने अपने गच्छ-सम्बन्धी चैत्यों की व्यवस्था में सर्वाधिकारी के ढंग से काम करते थे। उस समय के सुविहित आचार्य इस प्रवृत्ति का विरोध भी करते थे, परन्तु उनपर उसका कोई असर नहीं होता था। इस समय को श्वेताम्बर ग्रन्थकारों ने "चैत्यवासप्रवृत्तिसमय" के नाम से उद्घोषित किया है । यही समय दिगम्बर सम्प्रदाय में "भट्टारकीय समय'' के नाम से पहचाना जाता है । आचार्य कुन्दकुन्द ने ठीक इसी समय की प्रवृत्तियों का खण्डन किया है । इससे यह सिद्ध होता है कि वे पाँचवीं सदी के पूर्व के व्यक्ति नहीं थे। (८) 'रयणसार' की १०५ तथा १०८ से १११ तक की गाथाओं में कुन्दकुन्द Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.008068
Book TitleShraman Bhagvana Mahavira
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKalyanvijay Gani
PublisherShardaben Chimanbhai Educational Research Centre
Publication Year2002
Total Pages465
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Biography, History, & Philosophy
File Size8 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy