________________
३०७
जिनकल्प और स्थविरकल्प
इसी ग्रन्थ की गाथा ६९२ में ग्रन्थकार कहते हैं-'तेल और कसैले द्रव्य से क्षपक को बार बार कुल्ले कराने चाहिए ताकि उसकी जीभ और कान बलवान् और मुख तेजस्वी हो ।'
ये ही ग्रन्थकार गाथा ७०२ और ७०३ में कहते हैं-"यदि क्षपक की इच्छा हो तो उसकी समाधि के लिये सब प्रकार का आहार लाकर उसे खिलाना चाहिए और फिर एक एक कम करते हुए पहले के आहार पर ले आना और क्रमशः भोजन का त्याग करवा कर उसे पानी पर ले आना चाहिये" ।
मूलाचार के समाचाराधिकार की "गच्छे वेज्जावच्चं" इस १७४वीं गाथागत 'वेज्जावच्च' शब्द की व्याख्या करते हुए वसुनन्दी श्रमणाचार्य लिखते हैं-"वेज्जावच्चं-वैयावृत्त्यं कायिकव्यापाराहारादिभिरुपग्रहणम् ।" अर्थात् वैयावृत्त्य का अर्थ शारीरिक प्रवृत्ति और आहार आदि से उपकार करना है ।
आचार्य वट्टकेर मूलाचार के समयसाराधिकार की ६१वीं गाथा में कहते हैं-'साधुओं को साध्वियों के उपाश्रय में ठहरना, बैठना, सोना, पढ़ना और आहार नीहार करना (भोजन करना और टट्टी जाना) नहीं चाहिये ।
प्रिय पाठकगण ! जो आचार्य गुणाधिक उपाध्याय, तपस्वी, शिष्य, दुर्बल, समनोज्ञ, गण, कुल और संघ का आहार औषधादि से विनय वैयावृत्य करने की साधुओं को आज्ञा करते थे, क्षपक के लिये चारचार साधुओं को आहार पानी लाने और मलमूत्र को दूर त्यागने के लिये नियत करने का विधान करते थे, उसको सब प्रकार का भोजन लाकर देने और तेल आदि के कुल्ले कराने की सलाह देते थे और जो आचार्य साधुओं के लिए साध्वियों के स्थान में आहार पानी करने का निषेध करते थे क्या उनके सम्बन्ध में भी यह कह सकते हैं कि वे पात्र रखने के विरोधी थे ? हम जानते हैं कि वे स्वयं हाथों में भोजन करनेवाले थे तथापि साधुओं को ऊपर मुजब उपदेश देते थे । इसका अर्थ यही है कि उनके समय में अपवादमार्ग से वस्त्र-पात्र रक्खे जाते थे ।
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org