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________________ श्रमण भगवान् महावीर यदि ऐसा न होता तो इन पात्रसाध्य कार्यों के विधान का कुछ अर्थ ही नहीं होता और 'गृहस्थ के ही घर में साधु भोजन करे' ऐसा पहले एकान्त नियम होता तो साध्वी के उपाश्रय में आहार करने के निषेध की आवश्यकता ही नहीं पड़ती । परिणाम ३०८ ऊपर कहा गया है कि शिवभूति ने प्रारम्भ में अपने आचरण से जिनकल्प का पुनरुद्धार करने का निश्चय किया था, पर आगे जाने पर उन्हें अनुभव ने सिखाया कि वर्तमान समय में जिनकल्प को चलाना आसान नहीं है । एक व्यक्ति कैसा भी आचरण कर सकता है पर वैसे ही आचरणवालों की परम्परा जारी रखना सरल नहीं । परिणामस्वरूप अपने मार्ग को उन्होंने आचाराङ्गोक्त मूल स्थविरमार्ग में परिगणित किया और इस उत्सर्गमार्ग को न पाल सके उनके लिये उसी सूत्र के अनुसार कुछ वस्त्र - पात्र रखने की व्यवस्थावाला अपवाद मार्ग भी नियत किया । यद्यपि शिवभूति के सम्प्रदाय का उद्भव उत्तरापथ में हुआ था पर वहाँ उसका अधिक प्रचार नहीं हो सका । कारण स्पष्ट है । प्राचीन स्थविरसंघ का उन दिनों वहाँ पूर्ण प्राबल्य फैला हुआ था और मथुरा के आसपास के ९६ गाँवों में तो जैन धर्म राजधर्म के रूप में माना जाता था । इस स्थिति में शिवभूति या उनके अनुयायियों का वहाँ टिकना बहुत कठिन था । इस कठिनाई के कारण उस सम्प्रदाय ने उधर से हटकर दक्षिणापथ की तरफ प्रयाण किया, जहाँ आजीवक संप्रदाय के प्रचार के कारण पहले ही नग्न साधुओं की तरफ जन - साधारण का सद्भाव था । वहाँ जाने पर इस सम्प्रदाय की भी अच्छी कदर हुई और धीरे-धीरे वह पगभर हो गया । यद्यपि सम्प्रदायवालों ने अपने संप्रदाय का नाम 'मूलसंघ' रक्खा था, पर दक्षिण में जाने के बाद वे 'यापनीय' और 'खमण' इन नामों से अधिक प्रसिद्ध हुए । प्राचीन स्थविर परम्परा में प्रतिदिन शैथिल्य के भाव बढ़ रहे थे । बस्ती में रहना तो उन्होंने पहले ही शुरू कर लिया था, अब धीरे-धीरे उनमें चारित्रमार्ग की अन्य शिथिलताएँ भी प्रवेश कर रही थीं । यद्यपि सुविहित Jain Education International For Private Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.008068
Book TitleShraman Bhagvana Mahavira
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKalyanvijay Gani
PublisherShardaben Chimanbhai Educational Research Centre
Publication Year2002
Total Pages465
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Biography, History, & Philosophy
File Size8 MB
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